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________________ २१४ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ता। किन्तु वचनशुद्धि तो प्रत्यक्ष है। उस पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण या अंकुश लगाया जा सकता है। मनशुद्धि के साथ-साथ वचन शुद्धि भी आवश्यक है। सामायिक करते समय वचन समिति का पालन आवश्यक है। कर्कश या कठोर वचन का उपयोग न करके निरवद्य (पाप रहित) वचन बोलना चाहिये। वचन अन्तरंग दुनिया का प्रतिबिम्ब है। कहा भी है : 'वचन-वचन के आतरे, वचन के हाथ न पांव। एक वचन है औषधि, एक वचन है घाव।।' वचन को बोलने से पहले तोलना अत्यन्त आवश्यक है। व्यक्ति का बोला हुआ एक वचन औषधि रूप बन जाता है और एक वचन घाव रूप बन जाता है। वचन सदैव हित, मित तथा परमित होना चाहिये। बोलते समय भाषा को लक्ष्य में रखकर बोलना चाहिये। कम बोलना अर्थात् वचनसमिति का पालन करना। वचनशुद्धि से भी भावशुद्धि हो सकती है। ___ कायशुद्धि - कायशुद्धि का यह अर्थ शरीर को सजाना नहीं है। कायशुद्धि से अभिप्राय है कि कायिक संयम रखना। आन्तरिक आचार का कार्य मन करता है और बाह्य आचार का कार्य शरीर करता है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है : 'जयं चरे, जयं चिटे, जयमासे, जयं सए। जयं भुंजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बन्धइ।।८।।१३६ व्यक्ति को यतनापूर्वक उठना, बैठना, खाना-पीना, हिलना-डुलना आदि सर्वकार्य विवेकपूर्वक करना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि अपने निमित्त से प्राणीमात्र को पीड़ा नहीं पहुँचे। ऐसा व्यक्ति ही कायशुद्धि का सच्चा साधक होता है। जब तक हमारा बाह्य कायिक आचरण शुद्ध एवं अनुकरणीय नहीं होता, तब तक आन्तरिक शुद्धि सम्भव नहीं है। आन्तरिक शुद्धि के पहले बाह्य शुद्धि आवश्यक है। उपर्युक्त चारों शुद्धि की हमने चर्चा की। ये चारों शुद्धि सामायिक करने से पूर्व आवश्यक हैं। तब ही हमारा चित्त एकाग्र बन सकता है। सामायिक साधना का प्रमुख लक्ष्य ही यही होना १३६ दशवैकालिकसूत्र ४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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