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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
होता है । व्यक्ति को यह विचार करना चाहिये कि अनुकूल का संयोग और प्रतिकूल का वियोग यह मेरे अधिकार क्षेत्र में नहीं है । बाह्य परिस्थितियाँ कब और किस प्रकार घटित हों, इस पर हम अपना नियन्त्रण नहीं रख सकते हैं । इसलिए यह श्रेष्ठ है कि चाहे अनुकूल परिस्थितियाँ हों चाहे प्रतिकूल, दोनों के सम्बन्ध में हमें यह जान लेना है कि इनमें से कोई भी स्थायी नहीं है । यदि दुःखद परिस्थिति उत्पन्न हुई है, तो यह भी समाप्त होने को है । यदि अनुकूल परिस्थिति प्राप्त हुई है, तो इसका भी वियोग निश्चित है । जब व्यक्ति का चिन्तन इस प्रकार का बनता है, तो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में उसका चित्त उद्वेलित नहीं होता है । मन तनावों से ग्रस्त नहीं बनता है। यही सामायिक या समत्वयोग की साधना है ।
प्रतिकूल परिस्थिति जन्य जो घटनाएँ घटित होती हैं, उन्हें होने पर व्यक्ति अशान्त बन जाता है । किन्तु उन परिस्थितियों में यह विचार ही उसे तनावों से मुक्त रख सकता है कि जो भी परिस्थितियाँ बनी हैं उन्हें समाप्त होना ही है वे स्थायी नहीं हैं । इससे व्यक्ति के चित्त को एक सांत्वना मिलती है। उससे तनाव दूर होते हैं ।
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हमारा चित्त उद्वेलित या अशान्त होने का एक कारण हमारी इच्छाएँ और आकाँक्षाएँ होती हैं । व्यक्ति इच्छाओं और आकाँक्षाओं के वशीभूत होकर अपनी चित्तवृत्ति के समत्व को खो बैठता है । क्योंकि जब तक जीवन में चाह है, तब तक चिन्ता है और जब तक चाह और चिन्ता बनी हुई है, तब तक व्यक्ति दुःखी रहता है । उसका चित्त उद्वेलित रहता है । अतः समत्वयोग की साधना में व्यक्ति को इच्छा और आकाँक्षा से ऊपर उठना आवश्यक है । इच्छा और आकाँक्षाओं से ऊपर उठकर वीतरागता की साधना ही सामायिक या समभाव की साधना है ।
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जैनदर्शन में सामायिक की साधना का महत्त्वपूर्ण स्थान है । गृहस्थ और मुनि के जो षट् आवश्यक कर्त्तव्य बताये गए हैं, उनमें सामायिक का स्थान प्रथम है । सामायिक की साधना साधु जीवन का प्रथम चरण और गृहस्थ जीवन का अनिवार्य कर्त्तव्य है 1 जैनदर्शन में सामायिक को शिक्षाव्रत भी कहा गया है शिक्षा
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