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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
अर्थात अभ्यास। सामायिक अर्थात समत्व का अभ्यास। हिंसा का परित्याग तथा आत्म सजगता एवं समत्व का दर्शन, यही सामायिक की साधना है। दूसरे शब्दों में आसक्ति रहित होकर मात्र साक्षीरूप चेतना में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की सच्ची प्रतीति करना ही सामायिक है।
समत्व की साधना अप्रमत्त चेतना में ही सम्भव है। लेकिन जब तक उसके प्रति हमारा सतत अभ्यास नहीं होगा, तब तक अप्रमत्त अवस्था में स्थिर रहना कठिन होगा। क्योंकि सावद्य प्रवृत्तियाँ, इच्छाएँ, आकाँक्षाएँ और कामनाएँ निरन्तर हम पर हावी रहती हैं। वे हमारी चेतना को अप्रमत्त या निर्विकार नहीं होने देती हैं। जैसे मद्यपान के द्वारा चित्त विकृत और प्रमत्त हो जाता है; वैसे ही सावद्य प्रवृत्तियों में रस लेने से चेतना विकारी और प्रमत्त बन जाती है। अतः यदि अप्रमत्त निर्विकार चेतनदशा को उपलब्ध करना है, तो इन सावध प्रवृत्तियों से बचना आवश्यक है। जब हम इन सावध प्रवृत्तियों से बचेंगे, तब ही समत्व या अप्रमत्त अवस्था प्राप्त होगी।
प्राणीमात्र के प्रति आत्मवत् दृष्टि, शुभ मनोभाव, सर्व परिस्थितियों में समता, स्वजीवन पर नियन्त्रण और निरन्तर आत्म सजगतापूर्वक अभ्यास करना ही सामायिक व्रत है। समत्व और मनोभाव - ये दो सामायिक व्रत के भावनात्मक पक्ष हैं और अशुभ मनोवृत्तियों का निराकरण उसका निषेधात्मक पक्ष है। इस प्रकार सामायिक के दो पक्ष हैं - द्रव्य सामायिक और भाव सामायिक। द्रव्य सामायिक सामायिक का बाह्य स्वरूप है और भाव सामायिक अर्थात् समत्वभाव और आत्मा में अवस्थिति है। डॉ. सागरमल जैन ने 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' के दूसरे भाग में सामायिक की साधना के लिये चार विशुद्धियों का उल्लेख किया है : १. कालविशुद्धि;
२. क्षेत्रविशुद्धि; ३. द्रव्यविशुद्धि; और
४. भावविशुद्धि।३२
१३२ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. २६३ ।
-डॉ. सागरमल जैन ।
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