SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना १८३ अपराजितसूरि ने शुभयोग से अशुभयोग की ओर गई हुई अपनी आत्मा को पुनः शुभ योग या शुद्ध भाव में लौटा लाने को प्रतिक्रमण माना है। आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा प्रतिक्रमण की व्याख्या में इन तीन अर्थों का निर्देश किया गया है : १. प्रमादवश स्वस्थान से परस्थान में जाकर पुनः स्वस्थान पर लौट आना - यह प्रतिक्रमण है अर्थात् बाह्यदृष्टि से अन्तर्दृष्टि की ओर आना प्रतिक्रमण है। २. क्षयोपशमिक भाव से औदायिक भाव में परिणत हुआ साधक जब पुनः औदायिक भाव से क्षयोपशमिक भाव में लौट आता है -- यह प्रतिक्रमण है। ३. अशुभ आचरण से निवृत्त होकर मोक्षफलदायक शुभ आचरण __ में निःशल्य भाव से प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है।०० प्रतिक्रमण के पांच प्रकार बताये गए हैं : १. मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण; २. अव्रत का प्रतिक्रमण; ३. प्रमाद का प्रतिक्रमण; ४. कषाय का प्रतिक्रमण; और ५. अशुभ योग का प्रतिक्रमण। गोम्मटसार में प्रतिक्रमण का सुन्दर निर्वचन इन शब्दों में किया गया है : 'प्रतिक्रमण प्रमादकृत दैवसिकादिदोषो, निराक्रियते अनेनेति प्रतिक्रमणम्' अर्थात् प्रमादवश दैवसिक रात्रिक आदि में लगे हुए दोषों का जिसके द्वारा निराकरण किया जाता है, उसे प्रतिक्रमण कहते हैं। - आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के निम्न पर्यायवाची नाम दिये हैं .१०१ १६ योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति ३ । १०० 'स्वस्थानाद् यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशाद्गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते ।। क्षायोपशमिकाद् भावादौदयिकस्य वशं गतः । तत्रापि च एवार्थः, प्रतिकूलगमात्स्मृतः ।। प्रति प्रति वर्तनं वा, शेभेषु योगेषु मोक्षफलेषु । निःशल्यस्य यतेयर्थत्, तद्वा ज्ञेयं प्रतिक्रमणम् ।।' -आवश्यक टीका (उद्धृत श्रमणसूत्र पृ.८७)। १०१ 'पडिकमणं पडियरणा, परिहरणा वारणा नियत्तीय । निन्दागरिहा सोही, पडिक्कमणं अट्टहा होई ।। १२३३ ।।' -आवश्यकनियुक्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy