SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना १. प्रतिक्रमण : 'प्रति+उपसर्ग 'क्रम' धातु है। 'प्रति' का अर्थ प्रतिकूल है और और ‘क्रमु' का अर्थ है पद निक्षेप। दोनों को मिलाकर अर्थ पापाचरण के क्षेत्र से प्रतिगामी होकर आत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौट आना अथवा परस्थान में गये हुए साधक का पुनः स्वस्थान में लौट आना है। आचार्य जिनदास कहते हैं - 'पडिक्कमणं-पुनरावृत्ति'; २. प्रतिचरण : हिंसा, असत्य आदि से निवृत्त होकर अहिंसा, सत्य एवं संयम के क्षेत्र में अग्रसर होना। आचार्य जिनदास कहते हैं - 'अत्यादरात् चरणा पडिचरणा अकार्य-परिहारः कार्यप्रवृत्तिष्च'; ३. परिहरण : सब प्रकार से अशुभ प्रवृत्तियों एवं दुराचरणों का परित्याग करना; ४. वारण : निषिद्ध आचरण की ओर प्रवृत्ति नहीं करना। बौद्ध धर्म में प्रतिक्रमण के समान की जाने वाली क्रिया को प्रवारणा कहा गया है - 'आत्म निवारणा वारणा'; ५. निवृत्ति : अशुभ भावों से निवृत्त होना - 'असुभभाव-नियत्तणं नियत्ति'; ६. निन्दा : गुरूजन, वरिष्ठ-जन अथवा स्वयं अपनी ही आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ आचरणों को बुरा समझना तथा उसके लिये पश्चाताप करना; ७. गर्दा : अशुभ आचरण को गर्हित समझना, उससे घृणा करना; और ८. शुद्धि : प्रतिक्रमण आलोचना, निन्दा आदि के द्वारा आत्मा पर लगे दोषों से आत्मा को शुद्ध बनाता है। इसलिये उसे शुद्धि कहा गया है। स्थानांगसूत्र में इन छ: बातों के प्रतिक्रमण का निर्देश है : १. उच्चार प्रतिक्रमण : मल आदि का विसर्जन करने के बाद ईर्यापथिक (आने जाने में हुई जीव हिंसा का) प्रतिक्रमण करना उच्चार प्रतिक्रमण है। २. प्रश्रवण प्रतिक्रमण : पेशाब करने के बाद ईर्यापथिक क्रिया करना प्रश्रवण प्रतिक्रमण है। ३. इत्वर प्रतिक्रमण : स्वल्पकालीन प्रतिक्रमण करना इत्वर प्रतिक्रमण है। ४. यावत्कथित प्रतिक्रमण : सम्पूर्ण जीवन के लिये पाप से निवृत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy