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________________ १८२ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना को श्रेष्ठ माना है। जैनाचार्यों ने वन्दन क्रिया के सम्बन्ध में काफी गहराई से विचार किया है। आवश्यकनियुक्ति में वन्दन के ३२ दोष वर्णित संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि वन्दन करते समय स्वार्थ, आकांक्षा, भय और अनादर का भाव नहीं होना चाहिये, जिससे वन्दन करने में दोष लगे। मन, वचन और काया से गुरूजनों एवं पूज्यजनों के प्रति बहुमान प्रकट करना वन्दन है। शास्त्रों में वन्दन के चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म आदि पर्यायवाची शब्द मिलते हैं। ४. प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण का मतलब पीछे लौटना है। प्रतिक्रमण में दो शब्द हैं। शब्द शास्त्र की दृष्टि से इसका अर्थ होता है, वापस लौटना। मूल स्थिति को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र ने इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की है - 'प्रतीपं क्रमणं प्रतिकमणम् अयमर्थः शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभष्वेष क्रमणात् प्रतीपं क्रमणम्।', अर्थात् पीछे लौटना प्रतिक्रमण है। अशुभ योग से शुभ योग में वापस आना ही प्रतिक्रमण है। इसी अर्थ का समर्थन भगवतीआराधना की टीका में किया गया है : 'स्वकृताशुभयोगात्दप्रतिनिवृत्तिः प्रतिक्रमणम्' अर्थात् अपने द्वारा किये गये अशुभ योग से परावर्त होना - लौटना अर्थात् मेरा अपराध दुष्कृत मिथ्या हो, ऐसा कहकर पश्चाताप करना प्रतिक्रमण है। मन, वचन और काया से जो अशुभ आचरण किया जाता है अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों के द्वारा आचरित पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, उन सबकी निवृत्ति के लिये कृतपापों की आलोचना कर पुनः शुभ या शुद्ध अवस्था में लौटना प्रतिक्रमण है। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र और ६ आवश्यकनियुक्ति १२०७-११ । -प्रवचनसारोद्वार (वन्दनाद्वार) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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