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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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ही वन्दन का अधिकारी होता है।६३
वन्दन करनेवाला व्यक्ति विनय के द्वारा लोकप्रियता प्राप्त करता है।६४ भगवतीसूत्र के अनुसार वन्दन के फलस्वरूप गुरूजनों के सत्संग का लाभ प्राप्त होता है। सत्संग से शास्त्र श्रवण, ज्ञान-ध्यान, प्रत्याख्यान, संयम, तप आदि की और अन्त में सिद्धि की उपलब्धि हो जाती है। __वन्दन का मूल उद्देश्य है, जीवन में विनय को स्थान देना। विनय को जिनशासन का मूल कहा गया है। जीवन में विनय गुण आये बिना समत्वयोग की साधना भी सफल नहीं होती है।
आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि विनीत ही सच्चा संयमी अर्थात् समत्वयोगी होता है। जो विनयशील नहीं है, उसका कैसा तप और कैसा धर्म है?६६ दशवैकालिकसूत्र के अनुसार जिस प्रकार वृक्ष के मूल से स्कन्ध, स्कन्ध से शाखाएँ, शाखाओं से प्रशाखाएँ और क्रम से पत्र, पुष्प, फल एवं रस उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार धर्म वृक्ष का मूल विनय है और उसका अन्तिम फल एवं रस मोक्ष है। श्रमण साधकों में दीक्षापर्याय के आधार पर वन्दन किया जाता है। सभी पूर्व-दीक्षित पर्यायसाधक वन्दनीय होते हैं। जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में श्रमण जीवन की वरिष्ठता और कनिष्ठता ही वन्दन का प्रमुख आधार है। यद्यपि जैन परम्परा में कनिष्ठ बालक आज दीक्षा अंगीकार करता है, तो भी वरिष्ठ साध्वी को उसे वन्दन करने का विधान है; क्योंकि पुरुष
-वही।
-भगवतीसूत्र ।
६३ 'सुटुतरं नासंती, अप्पाणं जे चरित्त-पब्भट्ठा ।
गुरूजण वंदाविती, सुसमण अहुत्तकारिं ।। ११३८ ।।' ६७ उत्तराध्ययनसूत्र २६/१०।। ६५ 'सवणे णाणे य विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे ।
अणणहए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ।। २/५/११२ ।।' ६६ ‘विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे ।
विणयाउ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मोकओ तवो ।। १२१६ ।।' 'मुलाओ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाओ पच्छा समुवेंति साहा । साहप्पसाहा विरूहति पत्ता, तओ से पुष्पं च फलंरसो य ।।१।। एवं धम्मस्स विणओ मूलं, परमो से मोक्खो । जेण कित्तिं सुयं सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छइ ।। २ ।।'
-वही।
-दशवैकालिकसूत्र ।
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