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________________ १६८ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना सयोगी केवली गुणस्थान में आत्मा द्वारा पूर्णता प्राप्त कर लेने पर भी उसका शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहता है। जहाँ शरीर है, वहाँ शारीरिक अनुभूतियों (वेदना) का होना निश्चित है। अतः पुरुषार्थ के द्वारा इनमें परिवर्तन करना सम्भव नहीं होता। जीवनमुक्त आत्मा उन शारीरिक उपाधियों की समाप्ति को निकट देखती है, तो शेष कर्मों अर्थात् नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति यदि आयुकर्म से अधिक हो तो उसे समान करने के लिये प्रथम केवली समुद्घात करती है और उसके पश्चात् सूक्ष्मक्रिया प्रतिपातीशुक्ल ध्यान द्वारा केवली परमात्मा की आत्मा सुमेरूपर्वत के समान निष्प्रकम्प स्थिति की उपलब्धि करके शरीर का त्याग कर स्व-स्वरूप में अधिष्ठित हो जाती है और इस प्रकार निरुपाधिक सिद्धि या मुक्ति को प्राप्त कर लेती है। वहाँ परम विशुद्धि, पूर्णता, कृत-कृत्यता तथा अव्याबाध आनन्द की स्थिति होती है। ज्ञानसार में इस अयोगी केवली गुणस्थान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि त्याग परायण साधक को अन्त में सभी योगों का त्याग करना होता है। मेघ-शून्य गगन में चमकते हुए चन्द्र की तरह यह गुणस्थानवर्ती आत्मा अपने सम्पूर्ण शुद्ध स्वरूप में स्थित होती है। इसी गुणस्थान में चारित्रिक विकास और स्वरूप-स्थिरता की चरम स्थिति होती है। इस गुणस्थान का स्थितिकाल अत्यन्त अल्प होता है। जितना समय पांच हस्व स्वरों अ, इ, उ, ऋ, लू को मध्यम स्वर से उच्चारण करने में लगता है, उतने ही समय तक आत्मा इस गुणस्थान में रहती है। फिर मन, वचन और काया की समस्त चेष्टाओं का निरोध कर शैलेशी अवस्था प्राप्त कर देह का त्याग कर सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाती है। लेकिन षटूखण्डागम की धवला टीका में वीरसेन ने बताया है कि जिसके मन, वचन, काय रूप योग नहीं होता है, वह अयोगीकेवली कहलाता है और जो योग रहित केवली एवं जिन होता है, वह अयोगीकेवलीजिन कहलाता है।६३ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में भी कहा है कि जिसके ६२ 'न विद्यते योगो यस्य स भवत्योगः केवलमस्यास्तीति केवली । योगश्चासौ केवली च अयोगी केवली ॥' धवला १/१/१, सूत्र २२, पृ. १६२ । ६३ (क) गोम्मटसार जीवकाण्ड मन्दप्रबोधिनी टीका गाथा ६५ । (ख) जीवप्रबोधिनी टीका गाथा १० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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