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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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इस कारण आत्मा देह से अपने सम्बन्ध का परित्याग नहीं कर पाती है। इस गुणस्थान में बन्धन के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग इन पांच कारणों में से योग के अतिरिक्त शेष चार कारण समाप्त हो जाते हैं। किन्तु आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध रहने के कारण मन, वचन और काया की योग प्रवृत्ति होती है। अतः मन, वचन और काय के साधनों के अनुसार योग के तीन भेद होते हैं :
१. मनोयोग; २. वचनयोग; और ३. काययोग। इन योगों के कारण बन्धन तो होता है, लेकिन कषायों के अभाव में उसका टिकाव नहीं होता। प्रथम क्षण में बन्ध होता है, दूसरे क्षण में कर्मों का विपाक होता है और तीसरे क्षण में वे कर्म परमाणु खिर जाते (निर्जरित होते हैं। इस गुणस्थान में योगों के कारण होनेवाले बन्धन और विपाक, यह प्रक्रिया केवल औपचारिक मानी जाती है। क्योंकि इसमें स्थिति और रस का अभाव होता है। योगों के अस्तित्त्व के कारण इस स्थिति को सयोगी केवली गुणस्थान कहा गया है। यह अवस्था साधक और सिद्ध के बीच की अवस्था है। इस गुणस्थानवर्ती साधक को जैनदर्शन के अनुसार अर्हत, सर्वज्ञ एवं केवली कहा जाता है। सयोगी केवली में यदि कोई तीर्थंकर हो तो वे तीर्थ की स्थापना करते हैं और देशना देकर तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। इस गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम करोड़ पूर्व वर्ष तक का है।
१४. अयोगी केवली गुणस्थान
जो केवली भगवान योगों से रहित हैं, वे अयोगी केवली कहलाते हैं। जब सयोगी केवली मन, वचन और काया के योगों का निरोध कर योग रहित होकर शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, तब उन्हें अयोगी केवली और उनकी अवस्था विशेष को अयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं।
६१ (क) 'प्रदाहा घातिकर्माणि, शुक्लध्यान कृशानुना ।
अयोगो याति शैलेशोमोक्षलक्ष्मी निरास्त्रवः ।।' (ख) 'सीलेसिं संपत्तो निरूद्धणिस्सेआसओ जीवो ।
कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि ।। ६५ ।।'
-संस्कृत पंचसंग्रह १/५० ।
-गोम्मटसार (जीवकांड)।
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