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________________ १६६ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना दर्शनावरणीय और अन्तराय ये तीनों घातीकर्म भी समाप्त (क्षय) हो जाते हैं और आत्मा अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शन से युक्त हो विकास की अग्रिम श्रेणी में बढ़ जाती है। इस गुणस्थान में पतन का कोई भय नहीं होता। साधक उत्तरोत्तर आगे ही बढ़ता है। इस गुणस्थानवी जीव के भाव स्फटिकमणि के निर्मल पात्र में रखे जल के समान पवित्र एवं शुद्ध होते हैं। अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में इस गुणस्थान की भावदशा की स्पष्ट चर्चा की है। इस गुणस्थान का पूरा नाम क्षीण कषाय वीतराग छमस्थ गुणस्थान है; क्योंकि मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय होने पर भी शेष छद्म (घातीकर्म का आवरण) अभी विद्यमान रहता है। इस अवस्था को क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ कहा गया है और उसके स्वरूप विशेष को क्षीणकषाय वीतराग-छट्यस्थ गुणस्थान कहा गया है।६० क्षपक श्रेणी वाले साधक ही इस गुणस्थान को प्राप्त करते हैं और यहाँ से अग्रिम चरण में सयोगी केवली गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। इस बारहवें गुणस्थान को तीन नामों से सम्बोधित किया गया है : १. क्षीण कषाय; ३. वीतराग; और ३. छट्यस्थ। ये तीनों व्यावर्तक विशेषण हैं, क्योंकि क्षीण कषाय नामक विशेषण के अभाव में वीतराग छ्यस्थ से बारहवें गुणस्थान के सिवाय ग्यारहवें गुणस्थान का बोध होता है। क्योंकि ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय क्षीण नहीं होते, किन्तु उपशान्त मात्र होते हैं। बारहवें गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थिति अन्तर्मुहूर्त परिमाण है और इस गुणस्थान में वर्तमान जीव क्षपक श्रेणी वाले ही होते हैं। १३. सयोगी केवली गुणस्थान दसवें गुणस्थान में मोहनीयकर्म और बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय - इस प्रकार चारों घाती कर्मों का क्षय करके साधक केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर इस गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। लेकिन इस गुणस्थान में चार अघाती कर्म अर्थात् आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय शेष रहते हैं। ६° धवला १/१/१ए सूत्र २०, पृ. १८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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