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________________ समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना १६५ प्राप्त होता है, तो वह अनुत्तरविमान में उत्पन्न होता है और अग्रिम गुणस्थानों से पतित होकर चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त होता है; क्योंकि देवों के पांचवें आदि अग्रिम गुणस्थान नहीं होते हैं। उनका चौथा गुणस्थान होता है। पतन के समय भी वह क्रम के अनुसार ही निम्न-निम्न गुणस्थानों को प्राप्त करता है। इस पतन के काल में वह सातवें और चौथे गुणस्थान में होकर पुनः क्षायिक श्रेणी से यात्रा प्रारम्भ कर सकता है। यदि इन दोनों गुणस्थानों में नहीं रुकता है, तो वह सीधा प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है। १२. क्षीण मोह गुणस्थान इस गुणस्थान में साधक मोहकर्म की अट्ठाईस ही प्रकृतियों को पूर्णतः क्षीण कर देता है। इसी कारण इसका नाम क्षीण मोह गुणस्थान है।६ जो साधक मोहकर्म की इन प्रकृतियों का उपशम या दमन करता है, वह ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचकर भी पुनः पतित हो जाता है। वह बारहवें गुणस्थान में प्रवेश नहीं करता है। किन्तु जो साधक वासनाओं एवं आकांक्षाओं को सम्पूर्णतः क्षय करते हुए आगे बढ़ता है, तो वह दसवें गुणस्थान में रहे हुए अवशिष्ट सूक्ष्म लोभ को क्षय कर सीधे बारहवें क्षीण मोह गुणस्थान में आता है। इस गुणस्थान में आने के पूर्व ही वह राग-द्वेष-मोह तथा तदजन्य वासनाओं और आकांक्षाओं को पूर्णतः समाप्त कर देता है। अतः इस अवस्था को यथाख्यात चारित्र कहते हैं; क्योंकि इसमें व्यक्ति के चारित्र में कोई भी दोष नहीं रहता है। यह स्व-स्वरूप स्थिति है। जैन धर्म के अनुसार इन आठ कर्मों में मोहकर्म ही सबसे प्रधान है। इस मोहकर्म के क्षय होने पर शेष कर्म अपने आप में ही क्षय हो जाते हैं। इस गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरणीय, ५६ (क) 'जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स । तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं ।। ३३ ।।' -समयसार । (ख) द्रव्यसंग्रह टीका गाथा १३ । (ग) 'णिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदय समचित्तो । खीणकसाओ भण्णदि णिग्गंथो वीयरायेहिं ।। ६२ ।। -गोम्मटसार (जीवकांड)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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