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________________ समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना कर्मों के आगमन का आस्रव रूपी द्वार पूर्ण रूप से बन्द हो गया हो अर्थात् सम्पूर्ण संवर से युक्त हो और तपादि के द्वारा जिसके समस्त कर्मों की निर्जरा हो गई हो, ऐसा काययोग रहित केवली अयोगी केवली कहलाता है । ४ ६४ इस प्रकार उपर्युक्त चौदह गुणस्थानों के संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आत्मा उत्तरोत्तर अपनी वासनाओं और कषायों पर विजय प्राप्त करती हुई चौदहवें गुणस्थान में अपने आयुकर्म का क्षय करके सिद्ध और मुक्त कहलाती है । वह चार घाती और चार अघाती कर्मों का सम्पूर्ण क्षय करके अन्त में मोक्षसुख को प्राप्त कर लेती है I वह विभावदशा का त्याग कर स्वभावदशा में अवस्थित हो जाती है और बाह्य से भिन्न होकर अन्तर से अभिन्न हो जाती है। ये चौदह गुणस्थान उत्तरोत्तर समत्व के विकास या शुद्धि के सूचक हैं । व्यक्ति इस एक-एक सोपान को प्राप्त करता हुआ या समत्व में अधिष्ठित होता हुआ अन्तिम सीढ़ी मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, जहाँ अचिन्त्य अव्याबाध आनन्द की केवल अनुभूति होती है। ३. ५ समत्वयोग और सामायिक जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना को सामायिक की साधना के रूप में जाना जाता है । अतः समत्वयोग की इस चर्चा में सामायिक की चर्चा अपेक्षित है । १६६ जैन आगम साहित्य में समत्वयोग या सामायिक को मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख अंग माना है । सामायिक में समभाव या समता की वृत्ति ही मुख्य है । वस्तुतः सामायिक समत्वयोग या समत्ववृत्ति की साधना को साधक जीवन का अनिवार्य तत्त्व माना गया है । समत्व की साधना के दो पक्ष हैं पापमूलक) प्रवृत्तियों का ६४ 'सीलेसिं संपत्तो, निरूद्धणिस्सेसआसओ जीवो । कम्मरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होदि । ६५ 'विरदो सव्वसावज्जे तिगुत्तो पिहिदिंदिओ । तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।। १२५ ।।' Jain Education International बाह्य रूप में वह सावद्य ( हिंसक या त्याग है, ६५ तो आन्तरिक रूप में वह - गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६५ । For Private & Personal Use Only - नियमसार । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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