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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
होने देता। वह उन पर नियन्त्रण रखता हुआ दृढ़तापूर्वक उन पर विजय प्राप्त कर आगे बढ़ने का प्रयास करता है। इन पर विजय प्राप्त होने पर वह आगे की श्रेणी (अप्रमत्त संयत गुणस्थान) में चला जाता है और जब- जब कषायादि प्रमाद उन पर हावी होते हैं, तब-तब वह पुनः इस श्रेणी में आ जाता है । इस प्रकार छठे और सातवें गुणस्थान में साधक झूलता रहता है । इस गुणस्थान में यदि साधक पूर्ण जागरूकता के साथ समत्व का पालन करता है, तो आगे की श्रेणी में बढ़ जाता है और यदि प्रमाद के वशीभूत हो जाता है, तो इसी गुणस्थान में अवस्थित रहता है । समत्व या समता का पालन करने के लिये यह गुणस्थान अत्युत्तम स्वीकार किया गया है।
७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान
प्रमादों से मुक्त और समत्व में निमग्न आत्मदशा को ही अप्रमत्त गुणस्थान कहते हैं। जिस आत्मा में पूर्णतः सजगता की स्थिति होती है, देह में रहते हुए भी जो देहातीत भाव से युक्त हो; आत्मस्वरूप या समत्व में रमण करती हो, उसे अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती आत्मा कहा जाता है । उसका ध्यान केवल अपने लक्ष्य की ओर केन्द्रित रहता है। फिर भी कोई साधक ४८ मिनिट से अधिक देहातीत भाव में स्थिर नहीं रह पाता; क्योंकि दैहिक उपाधियाँ उसे विचलित किये बिना नहीं रहतीं । अतः इस गुणस्थान का समय अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं माना गया है। संयमी साधक छठे और सातवें गुणस्थान के मध्य परिचारण करते रहते हैं । ४७ जब साधक समत्वयुक्त जाग्रत अवस्था या देहातीत भाव में अधिक काल तक रहता है, तो वह विकास की अग्रिम श्रेणियों की ओर प्रस्थान कर जाता है । अन्यथा देहभाव की जाग्रति होने पर पुनः नीचे छठे गुणस्थान में चला जाता है । अप्रमत्त संयत गुणस्थान में साधक समस्त प्रमाद के अवसरों (जिनकी संख्या ३७,५०० मानी
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'अकसायमहक्खायं जं संजलणोदए न तं तेणं ।
लब्भइ लद्धं च पुणो भस्सइ सव्वं तदुदयम्मि ।। १२४७ ।। नहु नवरिमहखाओवघाइणो संसचरणदेसंपि ।
घाएंति ताणमुदये होइ जओ साइयारं तं ।। १२४८ ।। '
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