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________________ १६० जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना गई हैं)४८ से बचता है। इस गुणस्थान में किसी भी प्रकार का प्रमाद प्रकट नहीं होता है। किन्तु जब भीतर अचेतन मन में सत्ता में रही हुई कषाय तरंगे उठती हैं, तो वे उसे देहभाव में ले जाती हैं। इस गुणस्थान में चेतन मन स्वस्वरूप में या आनन्दानुभूति में निमग्न रहता है। गोम्मटसार में कहा गया है कि जब क्रोधादि संज्वलन कषाय और हास्य आदि नोकषाय का उदय अति मन्द हो जाता है, तभी अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की प्राप्ति होती है। जैसे-जैसे भावों की शुद्धि बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे अभिनव शक्ति निष्पन्न होती है और साधक समत्व के कारण प्रमाद को अपने पर हावी नहीं होने देता है। ८. अपूर्वकरण (निवृत्तिकरण) गुणस्थान सम्यक् प्रकार से समत्व से युक्त साधक ऐसी अपूर्व स्थिति को प्राप्त करता है, जो कभी पूर्व में प्राप्त नहीं हुई। ऐसे अपूर्व अध्यवसायों या आत्मशक्ति का होना अपूर्वकरण कहा जाता है। इसका दूसरा नाम 'निवृत्ति बादर गुणस्थान' अर्थात् यह स्थूल (बादर) कषायों से निवृत्ति का गुणस्थान है। इस गुणस्थान में उत्कर्ष भावों का प्रादुर्भाव होता है। साधना की इस भूमिका में प्रवेश करने पर जीवों के परिणाम प्रति समय अपूर्व-अपूर्व होते हैं। इस अवस्था में आत्मशक्ति विकसित हो जाती है और कर्मावरण अत्यन्त हल्का हो जाता है। यह आध्यात्मिक साधना की विशिष्ट अवस्था है। इसमें अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी कषायों की तीनों चौकड़ियों का उपशम या क्षय कर दिया जाता है तथा संज्वलन की चौकड़ी अर्थात् संज्वलन क्रोध, मान आदि का भी क्षय या उपशम करने का प्रयत्न रहता है। इस प्रकार साधक इन सबसे ऊपर उठकर पूर्वबद्ध कर्मों का तीव्रता से क्षय करता है और नवीन कर्मों का बन्ध भी अल्प मात्रा ४८ '२५ विकथाएं, २५ कषाय और नौ कषाय, ६ मन सहित पांचों इन्द्रियाँ, ५ निद्रां, २ राग और द्वेष', इन सबके गुणनफल से यह ३७,५०० की संख्या बनती है । ४६ 'संज्जणणोकसायाणुदओ मंदो जदा तदा होदि । ___ अपमत्तगुणो तेण य अपमत्तो संजदो होदि ।। ४५ ।।' -गोम्मटसार (जीवकाण्ड) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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