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________________ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना कषायों को उपशान्त करना होता है । जो व्यक्ति वासनाओं एवं कषायों पर आंशिक नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं रखता, वह व्यक्ति इस देशविरत नामक गुणस्थान में प्रवेश नहीं कर पाता है । पंचम गुणस्थानवर्ती साधक साधना - पथ से फिसलता तो है, फिर भी उसमें संभलने की क्षमता होती है । यह पांचवा गुणस्थान मनुष्य और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच को होता है । इस गुणस्थान में साधक आंशिक रूप से समत्व या समताभाव में अधिष्ठित रहता है । १५८ ६. प्रमत्त सर्वविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पांचवा देशविरत गुणस्थान मनुष्यों और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों को होता है, लेकिन छठा प्रमत्त संयत गुणस्थान तो केवल मनुष्यों को ही होता है । स्वतः पाप मुक्त होने के आत्मपरिणामों को ही सर्वविरत गुणस्थान कहा जाता है। इस गुणस्थान के अधिकारी त्यागी महापुरुष, साधु-साध्वी और अणगार होते हैं। इस गुणस्थानवर्ती आत्मा का प्रत्याख्यानावरणीय नामक तीसरा कषायचतुष्क क्षय या उपशमित हो जाता है । वह मोह एवं आसक्ति से भी विरक्त हो जाती है । वह संयमी होती है और अनुशासन में रहती है। फिर भी आत्मा सर्वविरति का निर्दोष पालन नहीं कर सकती है, क्योंकि रागादि रूप में अल्प प्रमाद रहता है । जल में खींची रेखा के समान कषायों का उदय अल्पकाल में समाप्त हो जाता है । इस गुणस्थान में साधक बाह्य शुभ-प्रवृत्तियों में व्यस्त होता है, किन्तु हिंसादि पापों का सम्पूर्णतः परित्याग कर देता है । इस गुणस्थान में संज्वलन कषायचतुष्क और हास्यादि नव नोकषाय के अतिरिक्त मोहनीयकर्म की शेष सभी प्रकृतियों के उदय का अभाव होता है। प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का क्षयोपशम या क्षय होने पर व्यक्ति प्रमत्त संयत नामक छठे गुणस्थान में आरोहण करता है । ४६ क्रोधादि वृत्तियाँ अव्यक्त रूप में अन्तरमानस को झकझोरती रहती हैं । फिर भी साधक उनकी बाह्य अभिव्यक्ति नहीं ४५ ४६ 'संज्जणणोकसायणुदओ मंदो जदा तदा होदि । अपमत्तगुणो तेण य अपमत्तो संजदो होदि ।। ४५ ।।' 'तईयकसायाणुदए पच्चक्खाणावरणनामधेज्जाणं । देसेक्कदेसविरइं चरित्तलंभं न उ लहंति ।। १२३४ ।। ' Jain Education International For Private & Personal Use Only - गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ) । - विशेषावश्यकसूत्र । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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