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________________ समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना १५७ रूप से सम्यक् आचरण करने लगता है। इस गुणस्थान का दूसरा नाम विरताविरत भी है; क्योंकि इस गुणस्थानवी आत्मा सर्वज्ञ वीतराग के कथन में श्रद्धा रखती हुई त्रस जीवों की हिंसा से विरत होती है, किन्तु स्थावर जीवों की हिंसा से विरत नहीं होती। फिर भी वह निष्प्रयोजन स्थावर जीवों की हिंसा नहीं करती है। त्रस जीवों के त्याग की अपेक्षा से विरत और स्थावर जीवों की हिंसा की अपेक्षा से अविरत होने से यह गुणस्थान विरताविरत कहलाता है।४ देशसंयत और संयतासंयत इसके दूसरे पर्यायवाची नाम है। श्रावक के पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार कुल बारह व्रत होते हैं। इनका पालन करने वाला देशविरत कहलाता है। देशविरत वह है, जिसने अपने जीवन को संयम की परिधि में बांधना शुरू किया है। दूसरे शब्दों में उसने अपने जीवन को संयमित और नियन्त्रित करना प्रारम्भ कर दिया है। ऐसे श्रावक ग्यारह प्रतिमाओं को धारण करते हुए समत्व को प्राप्त करते हैं। वे बारह व्रतधारी होते हैं और बारह भावनाओं का चिन्तन करते हैं। वासनामय जीवन से आंशिक रूप से निवृत्त होते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीगमन आदि अशुभाचार तथा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों से भी आंशिक रूप से विरक्त होते हैं। ऐसे देशविरत श्रावक आत्मकल्याण करते हुए समत्व को प्राप्त करते हैं। इस गुणस्थान में साधक यद्यपि गृहस्थाश्रमी होता है, फिर भी वह अपनी वासनाओं पर यथाशक्ति नियन्त्रण करने का प्रयास करता है। उसको जो उचित प्रतीत होता है, वह उसका आचरण करने की भी कोशिश करता है। चतुर्थ गुणस्थान में वासनाएँ एवं कषायों के आवेग प्रकट होते हैं, व्यक्ति उन पर नियन्त्रण भी नहीं कर पाता है। फिर भी एक अवधि के पश्चात् वे स्वयं ही उपशान्त हो जाते हैं। वे स्थायी नहीं रहते, जैसे तृणपुंज में अग्नि तीव्रता से प्रज्वलित हो जाती है और उसको काबू करना कठिन हो जाता है, किन्तु एक समय के पश्चात् वह स्वयं ही उपशान्त हो जाती है। इस पंचम गुणस्थान की प्राप्ति के लिये व्यक्ति को अप्रत्याख्यानी ४४ 'जो तस वहाओ विरदो अविरदओ तह य थावर वहाओ । एक्क समयम्मि जीओ, विरदाविरदो जिणेक्कमई ।। ३१ ।।' -गोम्मटसार (जीवकाण्ड) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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