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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
गुणस्थान से पुनः पतित नहीं होती है । वह अग्रिम विकास श्रेणियों में बढ़ती हुई अन्त में परमात्मस्वरूप को प्राप्त करती है। औपशमिक सम्यक्त्व वह कहलाता है, जिसमें वासनाएँ सम्पूर्णतः समाप्त नहीं होती, बल्कि उन्हें कुछ समय के लिये दबा दिया जाता है । अतः ऐसी आत्मा के यथार्थ दृष्टिकोण में अस्थायित्व होता है, जिसके कारण अन्तर्मुहूर्त ( ४८ मिनट) के पश्चात् पुनः वासनाएँ प्रकट हो जाती हैं और उनके कारण आत्मा सम्यक्त्व से फिर विमुख हो जाती है । इसी प्रकार आंशिक रूप से वासनाओं का क्षय और आंशिक रूप से दमित होने पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का जो बोध होता है, वह भी अस्थायी होता है; क्योंकि इसमें भी दमित वासनाएँ पुनः प्रकट होकर व्यक्ति की यथार्थ दृष्टि को धूमिल करके उसे सम्यक्त्व से गिरा देती है । वासनाओं के आंशिक क्षय और आंशिक दमन पर आश्रित यथार्थ दृष्टिकोण क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है । यह तीन भंगों से युक्त होता है :
१. चार का क्षय और तीन का उपशमन;
२. पांच का क्षय और दो का उपशमन; और ३. छः का क्षय और एक का उपशमन
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उपशम सम्यक्त्व से यह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अधिक निर्मल होता है । क्षायिक सम्यक्त्व तो सम्पूर्णतः निर्मल होता है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भवचक्र में असंख्य बार आता-जाता रहता है । किन्तु उपशम सम्यक्त्व श्रेणी आरोहण करने की स्थिति में अधिकतम चार बार ही आता है । क्षायिक सम्यक्त्व भवचक्र में केवल एक बार ही आता है। इसमें रही हुई आत्मा का या तो तद्भव में मोक्ष हो जाता है या अधिक से अधिक तीन या चार भव में मोक्ष होता है ।
समत्व की साधना की अपेक्षा से इस गुणस्थान में आत्मा चारों कषायों की अनन्तानुबन्धी चौकड़ी का क्षय करके आंशिक समत्व को प्राप्त करती है । उसमें कषायों के आवेग तीव्रतम नहीं होते हैं
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५. देशविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
यह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास का पांचवा सोपान है । इस गुणस्थान से संयम की साधना का प्रारम्भ होता है । व्यक्ति आंशिक
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