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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
कारण सम्यक् - - मिथ्यात्व नामक कर्म प्रकृति का उदय होता है । यह मिश्रगुणस्थान जीवन में संघर्ष की अवस्था का द्योतक है। इसमें सत्य और असत्य, शुभ और अशुभ अथवा व्यक्ति में निहित पाशविक और आध्यात्मिक वृत्तियों के मध्य संघर्ष चलता रहता है । लेकिन जैन विचारधारा के अनुसार यह वैचारिक या मानसिक संघर्ष की अवस्था अन्तर्मुहूर्त ( ४८ मिनट) से अधिक नहीं रहती । यदि आध्यात्मिक दृष्टि से व्यक्ति ऊपर उठ जाता है, तो विकास क्रम में आगे बढ़कर यथार्थ का बोध कर लेता है अर्थात् वह चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है और यदि वह पाशविक वृत्तियों से आक्रान्त होता है, तो वह यथार्थ बोध से पुनः पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाता है। वस्तुतः यह अनिश्चय की अवस्था है । अतः इस अवस्था में भी चेतना या आत्मा समत्व की स्थिति में नहीं रहती है । इस गुणस्थान में पहले गुणस्थान की अपेक्षा आत्मशुद्धि कुछ अधिक होती है।"
४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
यह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास का परिचायक है । इस गुणस्थान में जीव यथार्थता का बोध या सत्यता को उपलब्ध कर लेता है । वह सत्य को सत्य और असत्य को असत्य स्वीकर करता है । उसका दृष्टिकोण भी सम्यक् हो जाता है, लेकिन फिर भी आचरण उसके अनुरूप नहीं होता है । ४२ पूर्व संस्कारों के कारण अशुभ, असत्य को जानता हुआ भी उससे बच नहीं सकता । सत्य को जानना अलग है और सत्यमय हो जाना अलग है। सही रास्ते का ज्ञान हो जाना और उस पर चल पड़ना दोनों अलग-अलग
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(क) 'सम्मामिच्छुदयेण य, जत्तंर सव्वधादिकज्जेण । णय सम्मं मिच्छं पि य, सम्मिस्सो होदि परिणामो || दहिगुडमिव वा मिस्सं पुहभावं णेव कारिदुं सक्कं । एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णादव्वो ।' (ख) 'सम्यग् मिथ्यारुचिर्मिश्रः सम्यग् मिथ्यात्व पाकतः । सुदुष्करः पृथाभावो दधिमिश्र गुडोपमः ।।' (ग) गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेष्ण पृ. ५६ । षट्खण्डागम ४ / १०५, सूत्र १ ।
सं. पंचसंग्रह १/२३ |
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- गोम्मटसार जीवकांड २१, २२ ।
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- संस्कृत पंचसंग्रह १/२२ । -गुणस्थान क्रमारोह ।
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