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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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इति सासादन" अर्थात् सम्यक्त्व की विराधना को आसादन कहा गया है और आसादन से युक्त ही सासादन गुणस्थान है।
इस गुणस्थान में जीव को अनन्तानुबन्धी का उदय और सम्यक्त्व की विराधना होने के कारण आत्मा समत्व में स्थिर नहीं रह सकती है। समत्व की साधना की दृष्टि से इस गुणस्थान में क्रोध, मान, माया और लोभ में से किसी एक, दो या चारों की तीव्रतम स्थिति का उदय होता है। अतः यह असमत्व की अवस्था है।
३. मिश्र गुणस्थान
इस गुणस्थान का क्रम विकास श्रेणी में न आकर पतनोन्मुख श्रेणी में ही आता है, जिसमें अवक्रान्ति करनेवाली पतनोन्मुख आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर आती है और उत्क्रान्ति करनेवाली आत्मा, जिसने एक बार सम्यक्त्व का स्पर्श किया हो, प्रथम गुणस्थान से निकलकर तृतीय गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है। चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ का बोध करके यदि आत्मा पुनः पतित होती हो, तो प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करती है और वही आत्मा उत्क्रान्ति काल में प्रथम गुणस्थान से सीधी तृतीय गुणस्थान में भी आ सकती है।३६ इस गुणस्थानवी जीव की निश्चयात्मक अवस्था नहीं होने के कारण कभी वह सम्यक्त्व की ओर अभिमुख होता है, तो कभी मिथ्यात्व की ओर अभिमुख होता है। वह एक में स्थिर नहीं बन पाता है। दही और गुड़ के मिश्रित स्वाद जैसी यह स्थिति है। इसमें एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के परिणाम होते हैं। जैसे कमरे में एक छोटे से दीप को जलाने से कमरे के एक कोने में ही प्रकाश होता है, शेष कमरे में अंधेरा ही बना रहता है, वैसे ही इस गुणस्थान में धर्म-बोध की कुछ झलक होती है। इस गुणस्थान वाले जीव न तो सर्वज्ञ कथित वचनों पर पूर्णतः श्रद्धा करते हैं और न ही पूर्णतः अश्रद्धा करते हैं। असमंजस की स्थिति में रहते हैं। इस मिश्रित परिणाम का मूल
३८ (क) धवला १/१/१ पृ. १६३ । ___ (ख) तत्वार्थवार्तिका ६/१/१३ । ३६ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण पृ. ५४ ।
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