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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
इसी सास्वादन को प्राकृत भाषा में सासायण कहा गया है और संस्कृत में इसके दो रूप मिलते हैं - सासादन और सास्वादन। श्वेताम्बर परम्परा में सास्वादन और दिगम्बर परम्परा में सासादन रूप प्रचलित है। इन दो रूपों के कारण दोनों की व्याख्याएँ भी भिन्न-भिन्न हैं। श्वेताम्बर परम्परा में इसका अर्थ है - सम्यक्त्व के आस्वाद सहित; जबकि दिगम्बर परम्परा में इसका अर्थ है - सम्यक्त्व की विराधना सहित। वस्तुतः यह गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से विकासशील कहा जाता है, लेकिन फिर भी आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है। जब आत्मा ऊपर के गुणस्थानों से पतित होती है, तो प्रथम गुणस्थान में जाने से पूर्व इस गुणस्थान से गुजरती है।३३ पतनोन्मुख आत्मा को मिथ्यात्व गुणस्थान तक पहुँचने की मध्यावधि जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छः अवली समय की होती है।४ वही इस गुणस्थान का स्थितिकाल है। एक बार यथार्थबोध अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद मोहासक्ति के कारण आत्मा पुनः मिथ्यात्व को ग्रहण करती है। फिर भी उसे यथार्थता या सम्यक्त्व का आस्वाद बना रहता है। उस क्षणिक एवं आंशिक आस्वाद के कारण ही जीव की यह अवस्था सास्वादन गुणस्थान की कही जाती है। अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में बताया है कि सास्वादन गुणस्थान से गिरता हुआ जीव नियम से प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता है।५ षट्खण्डागम और गोम्मटसार जीवकाण्ड में सासादन गुणस्थान का अर्थ स (सहित) + आसादन अर्थात् सम्यक्त्व की विराधना से युक्त है।२७ धवला में “आसादनं सम्यक्त्वं विराधनं सह आसदनेन
३३ 'संयोजनोदये भ्रष्टो जीवः प्रथम दृष्टितः । अन्तरालात् मिथ्यात्वोवर्ण्यते श्रस्वदर्शनः ।।'
-सं. पंचसंग्रह १/२० । ३४ काल के सब से सूक्ष्म अंश को समय कहते हैं और असंख्यात समय की एक अवली होती
है। यह एक अवली प्रमाण काल भी एक मिनिट से बहुत छोटा होता है। ३५ तत्त्वार्थवार्तिक ६/१/१३ पृ. ५८६ । ३६ 'सासणसम्मादिट्ठी त्ति को भावो परिणामिश्रोभावो' -षड्खंडागम ५/१/७ सूत्र ३ । ३७ (क) षटखण्डागम १/१/१० ।
(ख) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. १६ । (ग) 'आसनं क्षेपण सम्यक्त्व विराधनं तेन सह वर्तते यः स सासनः ।' (घ) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) मंदप्रबोधिनी टीका गा. १६ ।
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