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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
जाती है। उसकी श्रद्धा भी विपरीत होती है; जैसे धतूरे के बीज खाने वाला मनुष्य सफेद वस्तु को भी पीली देखता है, वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव की दृष्टि भी विपरीत हो जाती है। इसी कारण वह सर्वज्ञ भाषित तत्त्वों में विपरीत श्रद्धा करता है। वह सुदेव को कुदेव, सुगुरू को कुगुरू और सुधर्म को कुधर्म मानता है। तदनुसार कुदेव को सुदेव, कुगुरू को सुगुरू तथा कुधर्म को सुधर्म मानकर वह उनके प्रति आस्था रखता है।" उसे आत्म और अनात्म - 'स्व' और 'पर' का विवेक नहीं होता। वह अधर्म को धर्म, असत्य को सत्य मानकर चलता है, दिग्मूढ़ होकर लक्ष्य से विमुख भटकता रहता है और अपने गन्तव्य को प्राप्त नहीं कर पाता।२।।
सामान्यतः मिथ्यादृष्टि जीव की अभिरुचि आत्मोन्मुख नहीं होती है। उसकी रूचि बाह्य पदार्थों की उपलब्धि की होती है। वह बाह्य पदार्थों को अपने हित और सुख का साधन समझता है। उसकी दृष्टि भौतिक या भोगवादी होती है। डॉ. सागरमल जैन गुणस्थान सिद्धान्त में लिखते हैं कि मिथ्यात्व गुणस्थान में आत्मा दर्शनमोह
और चारित्रमोह की कर्म प्रकृतियों से प्रगाढ़ रूप से जकड़ी हुई होती है। मानसिक दृष्टि से मिथ्यात्व गुणस्थान में प्राणी तीव्रतम क्रोध, मान, माया और लोभ (अनन्तानुबन्धी कषाय) के वशीभूत रहता है। वासनात्मक प्रवृत्तियाँ उस पर पूर्ण रूप से हावी होती हैं, जिनके कारण वह सत्यदर्शन, समत्व या आदर्श आचरण से वंचित रहता है।२३ जैन विचारधारा के अनुसार संसार की अधिकाँश आत्माएँ मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहती हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान में रही हुई ये आत्माएँ भी दो प्रकार की हैं :
१. भव्य आत्मा : जिस आत्मा को योग्य निमित्त मिलने पर यथार्थ का बोध हो सकता है और अपने आध्यात्मिक विकास या
-वही ।
२० (क) 'मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्च अट्ठाणं ।
एयंतं . विवरीयं विणयं, संसइदमण्णाणं ।। १५ ।।' (ख) 'तत्वाणि जिन दृष्टानि, यस्तद् यानि न रोचते ।
मिथ्यात्वस्योदये जीवो, मिथ्यादृष्टिरसौ अतः ।।' 'आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं एवं पूर्णता' पृ. २५ । २२ 'गुणस्थानक्रमारोह', श्लोक ८ ।
'गुणस्थान सिद्धान्त' षष्ठम् अध्याय पृ. ५२ ।
-संस्कृत पंचसंग्रह १/११ ।
-रत्नशेखरसूरि ।
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