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________________ समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना 149 १४६ समत्व की पूर्णता को प्राप्त कर सकती है, उसे भव्य आत्मा कहा जाता है। २. अभव्य आत्मा : जो आत्मा कभी भी अपना आध्यात्मिक विकास करने में समर्थ नहीं है और जिसे यथार्थ बोध की प्राप्ति असम्भव है, वह अभव्यात्मा है।" मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती आत्मा में तीव्रतम क्रोध, मान, माया और लोभ की उपस्थिति के साथ मिथ्यात्वमोह का भी उदय रहता है। यह मिथ्यात्व पांच प्रकार है : १. अभिग्रह मिथ्यात्व; २. अनभिग्रह मिथ्यात्व; ३. अभिनिवेशिक मिथ्यात्व; ४. संशय मिथ्यात्व; और ५. अनाभोग मिथ्यात्व।२५ १. अभिग्रह मिथ्यात्व : इस मिथ्यात्व के उदय से व्यक्ति मिथ्यादेव, मिथ्यागुरू, और मिथ्याधर्म को मानने वाला होता है। अन्य की उसे जानकारी नहीं होती। २. अनभिग्रह मिथ्यात्व : इस मिथ्यात्व के योग से जीव को सम्यक् समझ नहीं होती। वह सही को सही नहीं समझता है। चाहे सच्चे देव-गुरू-धर्म हो या मिथ्या देव-गुरू-धर्म हो, वह सभी को समान समझता है। इस कारण सुदेव आदि पर उसकी दृढ़ श्रद्धा नहीं होती। अभिनिवेशिक मिथ्यात्व : इस मिथ्यात्व के उदय से व्यक्ति हठधर्मी होता है। मिथ्या उपदेश करता है और पकड़ी हुई मान्यता को नहीं छोड़ता है। यह दुराग्रह की अवस्था है। ४. संशय मिथ्यात्व : इस मिथ्यात्व के कारण आत्मा परमात्मा के आप्त वचनों में शंकित रहती है। वह वचनों को सुनकर संकल्प-विकल्प करती है। अहंकार एवं भय के कारण शंका का निवारण करने का प्रयत्न भी वह नहीं करती है। ५. अनाभोग मिथ्यात्व : इस मिथ्यात्व के कारण मनुष्य सच्चे देव, गुरू और धर्म के स्वरूप को नहीं जानता है और मानता भी २४ वही पृ. ५३ । २५ (क) गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गा. १५ । (ख) तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि टीका (पूज्यपाद) ८११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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