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________________ समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना 1 उपशम, क्षय और क्षयोपशम ही गुणस्थानों का प्रमुख कारण है यह गुणस्थान शब्द दो शब्दों से बना है गुण+स्थान । गुण का अर्थ ज्ञान, दर्शन और चारित्र से है और स्थान का अभिप्राय अवस्था, स्थिति या श्रेणी विशेष से है। जीवात्मा की अशुद्धतम अवस्था के परिहार से लेकर शुद्धतम दशा अर्थात् मुक्तावस्था तक की विकास भूमिकाएँ गुणस्थान हैं। इन गुणस्थानों से आत्मा उत्तरोत्तर विशुद्ध होकर समत्वयोग में प्रगति करती है । समत्वयोग की इन अवस्थाओं से आगे बढ़ते-बढ़ते विकास की उच्चतम दशा अर्थात् मोक्ष तक पहुँचाने में ये गुणस्थान कार्यकारी हैं । जैनदर्शन में इन चौदह गुणस्थानों को निम्न नामों से अभिहित किया गया है : १. मिथ्यात्व; ३. मिश्र; ५. देश - विरत सम्यग्दृष्टि; ७. अप्रमत्तसंयत ( अप्रमत्तविरत ); ६. अनिवृत्तिकरण; ११. उपशान्तमोह; १३. सयोगी केवली; और - २. सास्वादन; ४. अविरत सम्यग्दृष्टि; ६. प्रमत्तसंयत; ८. अपूर्वकरण; १०. सूक्ष्मसम्पराय; १२. क्षीण मोह; १४. अयोगी केवली । ६ १६ Jain Education International प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक का क्रम दर्शन की अवस्थाओं को प्रकट करता है तथा पांचवे से बारहवाँ गुणस्थान सम्यक्चारित्र को दर्शाता है। तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान आध्यात्मिक पूर्णता का द्योतक है । १. मिथ्यात्व गुणस्थान : 1 इस गुणस्थान में आत्मा में यथार्थज्ञान या बोध का अभाव होता है । यथार्थ बोध के अभाव के कारण आत्मा निरन्तर बाह्य पदार्थों से सुख प्राप्त करने की कामना करती है और आन्तरिक सुख से वंचित रह जाती है । मिथ्यात्व मोहनीयकर्म के उदय से जीव की प्रवृत्ति भी मिथ्या हो १६ 'मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । विरदापमत्त इदरो अपुव्व अणियट्टि सुहमो य ।। ६ ।। उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलिजिणो अजोगी य । चोद्दस जीवसमासा कमेण सिद्धा च णादव्वा ।। १० ।। ' १४७ For Private & Personal Use Only - गोम्मटसार जीवकाण्ड | www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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