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समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना
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सफलता निर्भर होती है। किन्तु दृष्टि की विशुद्धि और विवेक तथा समता का विकास वासना या कषाय के उपशान्त हुए बिना सम्भव नहीं है। अतः वासनाओं और कषायों को उपशान्त करने के लिये प्रयत्न या पुरुषार्थ आवश्यक है। इसे ही जैनदर्शन की भाषा में सम्यक्चारित्र कहा गया है। इस प्रकार दृष्टि की विशुद्धि और आत्म-अनात्म के विवेक का विकास कहीं न कहीं कषायों के उपशमन या सम्यक्चारित्र पर निर्भर रहा है। यद्यपि जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना के तीन चरण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र माने गये हैं, किन्तु वे परस्पर सापेक्ष हैं। आध्यात्मिक विकास अथवा समत्वयोग या वीतरागता की साधना के जो विविध चरण माने गये हैं, उनमें सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की उपलब्धि (दर्शनविशद्धि) को आवश्यक माना गया है। किन्तु जैनदर्शन का गुणस्थान सिद्धान्त सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के लिये अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और दर्शनमोह के त्रिक का क्षय या उपशम आवश्यक मानता है। अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क का तात्पर्य क्रोध, मान, माया और लोभ की तीव्रतम अवस्थाएँ हैं। जब तक क्रोध, मान, माया और लोभ की तीव्रता समाप्त नहीं होती, तब तक समत्वयोग की साधना में प्रथम पद निक्षेप भी नहीं होता। क्रोध, मान, माया और लोभ की इस तीव्रतम अवस्था के नियन्त्रण से ही विवेकबुद्धि का विकास और दृष्टि की विशुद्धि सम्भव है। मनुष्य में वासना और विवेक का अतद्वन्द्व चलता रहता है। जब तक वासनाओं पर अंकुश नहीं लगता, तब तक विवेक का प्रकटन सम्भव नहीं है। दूसरी ओर बिना विवेक के जाग्रत हुए वासनाओं पर अंकुश भी नहीं लगाया जा सकता। अतः समत्वयोग की साधना के क्षेत्र में विकास करने के लिये विवेक का विकास और वासना का नियन्त्रण दोनों ही आवश्यक है।
समत्वयोग की साधना में आत्मा कैसे अपना कदम आगे बढ़ाती है, इस बात को जैनदर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा और गुणस्थान सिद्धान्त के द्वारा समझाया गया है। त्रिविध आत्मा की अवधारणा में आत्मा की तीन अवस्थाएँ मानी गई हैं :
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