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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
भी इस अवस्था में सब कुछ पा लिया जाता है। पूर्ण रिक्तता पूर्णता बनकर प्रकट होती है। जितनी मात्रा में वासनाएँ, अहंकार और चित्त के विकल्प क्षीण होते हैं, उतनी ही मात्रा में आत्मोपलब्धि या आत्म साक्षात्कार होता है। जब चेतना में इनका पूर्ण अभाव होता है, तभी मोक्ष या आत्मपूर्णता की उपलब्धि होती है। वह चित्त की विमुक्ति है और स्वतन्त्रता है। ___इस प्रकार मोक्ष या निर्वाण वह अवस्था है, जहाँ राग-द्वेष, भय, इच्छा, आकांक्षा सभी समाप्त हो जाते हैं और व्यक्ति एक प्रशान्त अवस्था को प्राप्त करता है। इस आधार पर यदि विचार करें, तो मोक्ष या निर्वाण, जिसे भारतीय चिन्तन ने जीवन का लक्ष्य निरूपित किया है; वह अन्य कुछ नहीं - केवल चेतना के समत्व की स्थिति है। इस प्रकार समत्व ही हमारे जीवन का लक्ष्य है। पूर्ण समत्व की अवस्था और निर्वाण या मोक्ष की अवस्था एक दूसरे की पर्यायवाची ही हैं। भगवतीसूत्र में भगवान महावीर ने कहा है कि “समत्व को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है।" आचार्य कन्दकुन्द भी लिखते हैं कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा के जो परिणाम हैं, वही समत्व है और वही जीवन का साध्य है। इसे ही मोक्ष कहा जाता है।
इस प्रकार समत्वयोग की साधना का साध्य वस्तुतः चित्तसमाधि या चित्त की निर्विकल्प दशा की प्राप्ति ही है। इस निर्विकल्प चित्त को ही जैनदर्शन में वीतराग अवस्था कहा गया है। बौद्धदर्शन इसे अर्हतावस्था और गीता इसे स्थितप्रज्ञ दशा कहता है। इस वीतराग, वीतत्तृष्ण या अनासक्त दशा की प्राप्ति ही हमारे जीवन का साध्य है; क्योंकि इस अवस्था में ही चित्त पूर्णतः निर्विकल्प एवं समाधि की स्थिति में होता है। ऐसे वीतराग या वीततृष्ण व्यक्तित्व का चित्रण हमें सभी भारतीय दर्शनों में मिलता है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा इस शोध प्रबन्ध के पांचवे अध्याय में की गई है।
-डॉ. सागरमल जैन ।
१३ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन'
भाग १ पृ. ४१४ । १४ भगवतीसूत्र १/६ ।
"तेसिं विसुद्धदसणणाणहाणासमं समासेज्ज । उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ।। ५ ।।'
-प्रवचनसार १ ।
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