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________________ समत्वयोग : साधक, साध्य और साधना १३६ देखते हैं कि तनावों को उत्पन्न करने वाली अशान्त चित्तवृत्ति का निरोध हो जाना ही निर्वाण है। वह स्व-संकल्पों, इच्छाओं और आकांक्षाओं का अभाव है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कहें तो निर्वाण इच्छाओं और आकांक्षाओं का समाप्त हो जाना ही है। इनके समाप्त होने से चित्त निर्विकल्प हो जाता है। जब तक जीवन में इच्छाएँ और आकांक्षाएँ रहती हैं, तब तक व्यक्ति की चेतना तनावग्रस्त और अशान्त रहती है। अतः समस्त साधना पद्धतियों का लक्ष्य मन या चित्त की इस अशान्त और तनावग्रस्त अवस्था को समाप्त करने का है। इसे ही निर्वाण या मोक्ष कहा जाता है। मोक्ष या निर्वाण वस्तुतः इसी जीवन में उपलब्ध किया जाता है। ___डॉ. प्रीतम सिंघवी अपने 'समत्वयोग : एक समन्वय दृष्टि' में लिखती हैं कि जीवन चेतनतत्त्व की सन्तुलन शक्ति है। चेतना जीवन है और जीवन का कार्य है, समत्व का संस्थापन । नैतिक जीवन का उद्देश्य एक ऐसे समत्व की स्थापना करना है, जिससे आन्तरिक मनोवृत्तियों का संघर्ष और आन्तरिक इच्छाओं और उनकी पूर्ति के बाह्य प्रयासों का संघर्ष समाप्त हो जाये। समत्व जीवन का साध्य है - वही नैतिक शुभ है। कामना, आसक्ति, राग-द्वेष आदि सभी जीवन की विषमता, असन्तुलन या तनाव की अवस्था को अभिव्यक्त करते हैं। इसके विपरीत वासनाशून्य, निष्काम, अनासक्त एवं वीतरागदशा ही नैतिक दृष्टि से शुभ मानी जा सकती है; क्योंकि यह समत्व का सजन करती है। समत्वपूर्ण जीवन ही आदर्श जीवन है। पूर्ण समत्व की यह अवस्था जैन धर्म में वीतरागदशा, गीता में स्थितिप्रज्ञता तथा बौद्धदर्शन में आर्हतावस्था के नाम से जानी जाती है। व्यक्ति का चित्त जब राग-द्वेष और मोह से रहित हो जाता है; तृष्णाएँ और आकांक्षाएँ समाप्त हो जाती हैं; तभी मुक्ति या निर्वाण का प्रकटीकरण होता है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार निर्वाण किसी अनुपलब्ध वस्तु की उपलब्धि नहीं है। वह तो आत्मोपलब्धि है। वह एक ऐसी उपलब्धि है, जिसमें पाना कुछ भी नहीं है, वरन् सब कुछ खो देना है। वह पूर्ण रिक्तता और शून्यता है। किन्तु सब कुछ खो देने पर १२ समत्वयोग : एक समन्वय दृष्टि पृ. ३० । -डॉ. प्रीतम सिंघवी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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