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________________ १३८ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना हैं, किन्तु उसके स्वरूप को लेकर उनमें मतभेद पाये जाते हैं। किन्तु ये मतभेद मुख्यतः दार्शनिक या तत्त्व-मीमांसीय मतभेदों के आधार पर रहे हुए हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से तो सभी भारतीय दार्शनिकों ने मोक्ष को एक प्रशान्त अवस्था माना है। मोक्ष या निर्वाण की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कुछ कहते हैं कि वासनाओं एवं वितर्कों के प्रहाण से प्रशान्त मनोदशा या चित्तसमाधि ही निर्वाण है। निर्वाण का अर्थ है, चित्त का राग-द्वेष के मल से रहित निष्पाप एवं निश्छल होना। इतिवृत्तक में बुद्ध कहते हैं कि वह (निर्वाण) ध्रुव है, न उत्पन्न होने वाला है; शोक और राग रहित है। वहाँ सभी दुःखों का निरोध हो जाता है। उदान में बुद्ध कहते हैं कि गर्म लोहे पर घन की चोट पड़ने पर जो चिनगारियाँ उठती हैं, वे बुझ जाती हैं; वे कहाँ गई, इसका कोई पता नहीं चलता। इसी प्रकार कामनाओं के बन्धन से मुक्त निर्वाण प्राप्त पुरुष की गति का कोई पता नहीं लगा सकता। आगे वे कहते हैं कि "भिक्षुओं ! न तो मैं उसे अगति कहता हूँ, न गति कहता हूँ, न स्थिति कहता हूँ और न च्युति कहता हूँ।" निर्वाण का समझना आसान नहीं है। यहाँ मात्र यह समझना पर्याप्त है कि जब ज्ञानी की तृष्णा नष्ट हो जाती है, तब उसे रागादि क्लेश नहीं रहते हैं और तब ही निर्वाण की उपलब्धि होती है। वस्तुतः निर्वाण एक ऐसी स्थिति है, जहाँ संज्ञा (इच्छाएँ और आकांक्षाएं) निरूद्ध हो जाती हैं, संस्कार शान्त हो जाते हैं और वेदना समाप्त हो जाती है। लंकावतारसूत्र के अनुसार निर्वाण सप्त प्रवृत्ति विज्ञानों की अप्रमत्त अवस्था है। वह चित्तप्रवृत्तियों का निरोध है।० स्थिरमति के अनुसार क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का क्षय हो जाना ही निर्वाण है। असंग के अनुसार निवृत्त चित्त अचित्त होता है; क्योंकि वह न तो विषयों का ग्राहक होता है और न उसमें विकल्प या वितर्क रहते हैं। लेकिन अचिंत्य होते हुए भी वह कुशल है; शाश्वत् है; सुखरूप है; विमुक्तकाय है और धर्माख्य है।” इस प्रकार हम इतिवुत्तक २/२/६ । ८ उदान ८/१० । १० लंकावतारसूत्र २/६२ । " त्रिंशिका-विज्ञप्ति भाष्य (उद्धृत् 'बौद्ध धर्म मीमांसा' पृ. १५०) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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