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________________ १३२ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना निहित है। जीवन के साध्य को हमें स्वयं जीवन में खोजना होगा। सन्तुलन या समत्व बनाए रखने की प्रवृत्ति, जो जीवन का एक आदर्श है; वह हमारी जीवनशैली में ही अन्तर्निहित है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि “जीवन का आदर्श (साध्य) जीवन के अन्दर ही निहित है। उसे बाहर खोजना प्रवंचना है। जीव विज्ञान एवं मनोविज्ञान यह बताते हैं कि जीवन में स्वयं सन्तुलन या समत्व बनाने की प्रवृत्ति पाई जाती है। यदि जीवन का साध्य सन्तुलन या समत्व है, तो फिर जीवन में इस समत्व या सन्तुलन को बनाये रखने की प्रवृत्ति को भी स्वीकार करना होगा। जो स्वयं जीवन में नहीं है, वह साधना के द्वारा भी प्राप्य नहीं है। संघर्ष नहीं, समत्व ही मानव जीवन का आदर्श हो सकता है; क्योंकि यही हमारा स्वभाव है। जो स्वभाव हो वही आदर्श (साध्य) है। स्वभाव से भिन्न साध्य की कल्पना अयथार्थ है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि समत्वयोग की साधना का साध्य समत्व ही है। यहाँ इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है कि जीवन का लक्ष्य संघर्ष है या संघर्ष का निराकरण। पाश्चात्य जगत में स्पेन्सर, डार्विन एवं मार्क्स आदि विचारकों ने संघर्ष को ही जीवन का लक्ष्य माना है। किन्तु यह एक मिथ्या अवधारणा है। जीवन का लक्ष्य संघर्ष नहीं समत्व की साधना है। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि “यदि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य का स्वभाव संघर्ष है और मानवीय इतिहास वर्ग-संघर्ष की कहानी है और संघर्ष ही जीवन का नियम है, तो फिर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद संघर्ष का निराकरण क्यों करना चाहता है? संघर्ष मिटाने के लिये होता है। जो मिटाने की, निराकरण करने की वस्तु है, उसे स्वभाव कैसे कहा जा सकता है? संघर्ष यदि मानव-इतिहास का एक तथ्य है, तो वह उसके दोषों का - उसके विभाव का इतिहास है, उसके स्वभाव का इतिहास नहीं। मानव-स्वभाव संघर्ष नहीं, संघर्ष का निराकरण या समत्व की अवस्था है। क्योंकि युगों से मानवीय प्रयास उसी के लिये होते आये हैं। सच्चा मानव इतिहास संघर्ष की कहानी नहीं, संघर्षों के ' 'जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ४०८ । -डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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