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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
की अवस्था है; जो समत्वयोग की साधना का मुख्य लक्ष्य है। उत्तराध्ययनसूत्र में इस चारित्र का फल मोक्ष की प्राप्ति बताया गया है। इस अवस्था में व्यक्ति का व्यक्तित्व पूर्णतः निराकुल और उद्वेगों से रहित होता है। चेतना का निराकूल और अनुद्विग्न रहना समत्वयोग की पूर्णता है। ___ इस प्रकार जैनदर्शन में चारित्र साधना के उपरोक्त जो पांच भेद कहे गए हैं, उनमें सामायिक चारित्र ही मुख्य है; क्योंकि सामायिक चारित्र के अभाव में शेष चारित्र भी चारित्र नहीं रहते। छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात चारित्र सामायिक चारित्र के ही अग्रिम चरण हैं। क्योंकि सामायिक चारित्र मूलतः राग-द्वेष, इच्छा और आकांक्षा से ऊपर उठने की साधना ही है और जब तक वीतरागता की उपलब्धि नहीं होती, तब तक समभाव या सामायिक की साधना आवश्यक बनी रहती है। एक अन्य दृष्टि से विचार करें, तो सामायिक की साधना समत्वयोग की साधना ही है; क्योंकि सामायिक में सावध योग का त्याग है। जब तक जीवन में राग-द्वेष और कषायों के तत्व उपस्थित हैं, तब तक किसी न किसी रूप में सावधयोग की प्रवृत्ति बनी रहती है। अतः सामायिक की साधना में व्यक्ति मन, वचन और काया की राग-द्वेष से अनुरंजित प्रवृत्तियों का त्याग करता है।
इस प्रकार सामायिक चारित्र की साधना और समत्वयोग की साधना एक दूसरे की पर्यायवाची ही है। सामायिक जैन परम्परा का एक पारिभाषिक शब्द है; किन्तु इसका अर्थ तो समभाव या समता की साधना ही है। चाहे हम उसे सामायिक कहें या सम्यक्चारित्र की साधना कहें; वह मूलतः तो समत्वयोग की साधना ही है। पांचों प्रकार के चारित्र समत्वयोग की साधना के ही विभिन्न चरण हैं। सम्यक्चारित्र उसका प्रथम चरण है और यथाख्यात चारित्र उसकी पूर्णता है। अग्रिम अध्याय में हम समत्वयोग की साधना क्या है; इसका साध्य, साधक और साधना पक्ष क्या है - इसका विवेचन करेंगे।
।। द्वितीय अध्याय समाप्त।।
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