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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग १२६ देहासक्ति से राग का जन्म होता है और राग से द्वेष का जन्म होता है - राग-द्वेष से कषायों का जन्म होता है। परिहार का अर्थ है - असंयम से निवृत्ति। परिहार से जिस चारित्र को अंगीकार करके कर्मकलंक की विशुद्धि की जाती है, वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। परिहार अर्थात् गण या संघ से अलग होकर मुनि एक विशिष्ट प्रकार के तप प्रधान आचरण को करते हुए कर्मों का क्षय अथवा आत्मा की विशेष शुद्धि के लिए जो साधना करता है, वह परिहारविशुद्धि चारित्र है।७० असंयम के परिहार से होने वाली विशुद्धि को परिहारविशुद्धि कहते हैं। पांच प्रकार के चारित्र में चतुर्थ चरण सूक्ष्मसम्परायचारित्र का है। सम्पराय अर्थात् कषायों के कारण जीव संसार भ्रमण करता है। इस अवस्था में कषायों का उन्मूलन तो हो जाता है, किन्तु देहासक्ति सूक्ष्म रूप से बनी रहती है। इसीलिए इसे सूक्ष्मसम्परायचारित्र नाम दिया गया है। इस चारित्र की साधना में व्यक्ति का जो मुख्य लक्ष्य होता है, वह अव्यक्त बीज रूप में रही देहासक्ति को जड़ से समाप्त करना है। देहासक्ति के समाप्त होने पर राग-द्वेष और कषायों के पुनर्जन्म की सम्भावना भी समाप्त हो जाती है तथा व्यक्ति समत्वयोग और वीतरागता की साधना की दिशा में आगे बढ़ जाता है। उसमें यथाख्यातचारित्र का प्रकटन होता है। यथाख्यातचारित्र चारित्र की साधना का अन्तिम लक्ष्य है। वह वीतरागता की उपलब्धि है - समत्वयोग की पूर्णता है। इसमें दो शब्द हैं - यथा + आख्यात अर्थात् जिनेश्वर परमात्मा ने जैसा आख्यात/निरूपित किया है, उसके अनुसार विशुद्ध चारित्र का पालन जिसमें हो, वह यथाख्यातचारित्र है। यथाख्यातचारित्र में राग-द्वेष और तद्जन्य क्रोधादि कषाय सम्पूर्णतः समाप्त हो जाते हैं और उनके पुनःउद्भावन की सम्भावना नहीं रहती। जीव यथाख्यातचारित्र का पालन करते हुए आत्मा को पूर्णतः विशुद्ध बनाकर वेदनीय आदि चारों अघाती कर्मों का क्षय कर देता है और उसके बाद सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो जाता है। यह पूर्ण वीतरागता २७० कर्म विज्ञान भाग ६ पृ. ३७६ । २७१ हिन्दी चौथा कर्मग्रन्थ पृ. ५६-६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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