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________________ १२६ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना है, वही निश्चयात्मक चारित्र है।२६३ जैनदर्शन के अनुसार सम्यक्चारित्र आत्मा में समत्व का संस्थापन करता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि चारित्र ही वास्तव में धर्म है और जो धर्म है, वह समत्व है और मोह एवं क्षोभ से रहित आत्मा की शुद्ध दशा को उपलब्ध करना ही समत्व है।२६४ पंचास्तिकाय में इसे अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि “समभाव ही चारित्र है।"२६५ डॉ. सागरमल जैन के अनुसार भी चित्त अथवा आत्मा की वासनाजन्य मलिनता और अस्थिरता को समाप्त करना ही सम्यक्चारित्र है।६६ ।। जैन साधना में सम्यक्चारित्र की साधना को विभिन्न प्रकार से विवेचित किया गया है। इसी क्रम से चारित्र के पांच भेदों का उल्लेख किया गया है : (१) सामायिक चारित्र; (२) छेदोपस्थापन चारित्र; (३) परिहारविशुद्धि चारित्र; (४) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र; और २६३ (क) 'स्वरूपेचरणं चारित्रं, स्वसमय-प्रवृत्तिरित्यर्थः तदेव वस्तु-स्वभावत्वाध्दमः' -प्रवचनसार त. प्र. ७ । (ख) 'जीव-स्वभाव-नियत-चारित्रं भवति । तदपि कस्मात् ? स्वरूपे चरणं चारित्रमिति वचनात् ।' -पंचास्तिकाय ता. वृ. १५४/२२४ । 'जाणावि मण्णवि अप्पपरू जो परभाउ चएहि । सो जिय सुध्दउ भावऽउ णाणिहिं चरणु हवेइ ।।' -परमात्मप्रकाश मू. २/३० । 'आत्माधीन-ज्ञान-सूख-स्वभावे शुध्दात्मद्रव्ये निश्चल-निर्विकारानुभूतिरूपमवस्थानंतल्लक्षण-निश्चय-चारित्राज्जीवस्य समुत्पद्यते ।।' -समयसार ता. वृ. ३८ ! ‘स्वरूपाविचल-स्थितिरूपं सहज-निश्चय चारित्रम् ।।' -नियमसार ता. वृ. ५५ । (छ) 'अप्प-सरूवं वत्थु, चत्तं रायादिएहिं दोसेहिं ।। सज्झाणम्मि णिलीणं तं जाणसु उत्तम चरणं ।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा १६ । (ज) 'निराकुलत्वजं सौख्यं स्वयमेवावतिष्ठतः । यदात्मनैव संवेधं चारित्रं निश्चयात्मकम् ।। -मोक्षपंचाशिका मू. ४५ ! २६४ प्रवचनसार १/७।। २६५ पंचास्तिकायसार १०७ । २६६ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ८४ -डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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