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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग १२५ जिसका आचरण किया जाता है, वह चारित्र है।"२५८ उत्तराध्ययनसूत्र में भी बताया गया है कि “साधक एक ओर से विरति करे और एक ओर से प्रवृत्ति अर्थात् वह असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करे।"५६ रत्नकरण्डकश्रावकाचार में कहा गया है कि “हिंसा, असत्य चोरी, मैथुन सेवन और परिग्रह - इन पांचों पाप प्रणालियों से विरत होना सम्यक्चारित्र है।"२६० समयसार में कहा है कि “जो नित्य प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण एवं आलोचना करता है, अपने व्रत नियम में अवस्थित रहता है - वही वास्तव में चारित्र है।"२६१ अपने ज्ञान स्वभाव में निरन्तर विचरण करना (निश्चय दृष्टि से) चारित्र है।६२ प्रवचनसार में बताया है कि स्व-स्वरूप में रमण करना अर्थात् स्व-समय में प्रवृत्ति करना चारित्र है। पंचास्तिकाय में भी यही विवेचन मिलता है। परमात्मप्रकाश के अनुसार अपनी आत्मा को जानकर उसके प्रति श्रद्धान करना ही चारित्र है। समयसार तात्पर्यवृत्ति में कहा गया है कि “आत्म-द्रव्य में निश्चल-निर्विकार अनुभूति रूप जो अवस्थान है, वही निश्चय चारित्र का लक्षण है।” कार्तिकयानुप्रेक्षा में बताया गया है कि “रागादि दोषों से रहित शुभ ध्यान में लीन आत्म-स्वरूप ही चारित्र है।" मोक्षपंचाशिका में कहा गया है कि “अपने में अवस्थित आत्मा जिस निरामूल सुख को उपलब्ध करती २५६ २५८ 'चर्यते सेव्यते सज्जनैरिति वा चारित्रं, समायिकादिकम् । चरति याति येन हितप्राप्ति अहितनिवारणं चेति चारित्रम्।।' -भगवतीआराधना वि.८/४१/११ । ‘एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं । असंजमे नियत्ति च संजमे य पवत्तणं ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र ३२/२ व्याख्या (आ. प्र. स.) पृ. ५५३ । 'हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवा - परिग्रहाभ्यां च । पाप प्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ।। ४६ ।। -रत्नकरण्डक श्रावकाचार । 'णिच्चं पच्चक्खाणं कुब्वदि, णिच्चं पडिक्कमदि जो य । णिच्चं आलोचेयदि, सो हु चरित्तं हवदि चेदा ।।' -समयसार मू. ३८६ । २६२ 'स्वस्मिन्नेव खलु ज्ञानस्वभावे निरन्तर-चरणाच्चरित्रं भवति ।'-समयसार आत्मख्याति ३८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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