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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
है कि “ चारित्र की आराधना करने से दर्शन, ज्ञान और तप तीनों आराधनाएँ हो जाती हैं।" चारित्रपाहुड में भी सम्यग्दर्शनादि तीनों को चारित्र रूप बताते हुए कहा गया है कि “सम्यक्त्वाचरण से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है ।” महापुराण के अनुसार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से रहित कोई भी क्रिया मुक्ति रूप कार्य के लिए उपयोगी नहीं होती । २५३
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उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि “जो कर्म के रजकण को रिक्त करता है, वह चारित्र है । २५४ चारित्र की यही चर्चा निशीथभाष्य में भी प्राप्त होती है । २५५
तत्त्वानुशासन में कहा गया है कि “ मन-वचन-काया से कृत-कारित - अनुमोदन द्वारा पाप रूप क्रियाओं का त्याग सम्यक्चारित्र है।” २५६ द्रव्यसंग्रह में चारित्र का लक्षण उपलब्ध होता है कि “अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र कहा है । व्यवहारनय से उस चारित्र को व्रत - समिति और गुप्तिरूप कहा है २५७ भगवतीआराधना में बताया गया है कि “सत्पुरुषों द्वारा
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२५४
( क ) ' चारित्रमन्ते गृह्यन्ते मोचप्राप्तेः साक्षात्कारणमितिज्ञापनार्थम् ।'
( ख ) ' अहवा चारित्ताराहणाए आराहियं सव्वं । आराहणाए सेसस्स चारित्तराहणा भज्जा ।।' ( ग ) 'तं चैव गुणविसुद्धं, जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाए । जं चर णाणत्तं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं ॥ ८ ॥ सम्मत-चरण-सुध्दा संजमचरणस्स जइ व सुपसिध्दा । णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं ।। ६ ।।' (घ) 'चारित्र दर्शन - ज्ञानविकलं नार्थकृत्तम् । पतनायैव तदि स्यात् अन्धस्यैव विविल्गितम् ।।' 'अकसायमहक्खायं, छउमत्थस्स जिणस्स वा ।
- उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २८ ।
२५५
एयं चयरित्तकरं चरितं होई आहियं ।। ३३ ।। ' निशीथभाष्य । -‘जैनदर्शन और कबीर का तुलनात्मक अध्ययन' पृ. १२५ से उधृत । २५६ 'चेतसा वचसा तन्वा कृतानुमत- कारितै पापक्रियाणां यस्त्यागः
- तत्वानुशासन २७ (नागसेनसूरि) ।
- द्रव्यसंग्रह |
२५७
सच्चारित्रभुवन्ति तत् ।'
'असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती च जाण चारित्तं । वद-समिदि-गुत्तिरूवं-ववहारणया दु जिण - भणियं ।। ४५ ।।
- सर्वार्थसिद्धि ६/१८/४३६/४ ।
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- भगवती आराधना सू. ८/४१ ।
- चारित्रपाहुड ।
- चारित्रपाहुड ।
- महापुराण २४ / १२२ ।
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