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________________ १०८ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना मूर्छा या आसक्ति ही परिग्रह है।६ दशवैकालिकसूत्र में भी कहा गया है कि श्रमण के लिए सभी तरह का परिग्रह, चाहे वह अल्प हो या अधिक हो, त्यागने योग्य है। परिग्रह या संचय करने की वृत्ति आन्तरिक लोभ की ही द्योतक है। श्रमण यदि परिग्रह रखता है, तो वह श्रमण नहीं अपितु गृहस्थ ही है। दशवैकालिकसूत्र में बताया गया है कि परिग्रह का वास्तविक अर्थ बाह्य वस्तुओं का संग्रह नहीं है, वरन् आन्तरिक मूर्छाभाव या आसक्ति ही है। प्रशमरतिप्रकरण में भी यही उल्लेख मिलता है कि 'आध्यात्मविदो मूर्छा परिग्रहं वर्णयति' अध्यात्मवेत्ता निश्चयतः मूर्छा को ही परिग्रह मानते हैं। जैनागमों में परिग्रह के मुख्यतः दो विभाग किये गये हैं - बाह्य परिग्रह और आभ्यंतर परिग्रह । बाह्यपरिग्रह नौ प्रकार का है : (१) क्षेत्र (खुलीभूमि); (२) वास्तु (भवन); (३) हिरण्य (चाँदी); (४) स्वर्ण; (५) धन (सम्पत्ति); (६) धान्य; (७) द्विपद (दास-दासी); (८) चतुष्पद (पशु आदि); और (६) कुप्य (घर, गृहस्थी का सामान)। आन्तरिक परिग्रह चौदह प्रकार का बताया गया है : (१) मिथ्यात्व; (२) हास्य; (३) रति; (४) अरति; (५) भय; (६) शोक; (७) जुगुप्सा; (८) स्त्रीवेद; (६) पुरुषवेद; (१०) नपुंसकवेद; (११) क्रोध; (१२) मान; (१३) माया; और (१४) लोभ ।६३ श्रमण के लिए सभी तरह का आभ्यंतर एवं बाह्य परिग्रह त्याज्य है, ऐसा नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने बताया है।६४ -दशवैकालिकसूत्र ६ । १६१ १८६ तत्त्वार्थसूत्र ७/१२ । १६० (क) 'ण सो परिग्गहो बुत्तो, णायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा ।। २० ।।' (ख) पुरुषार्थसिद्धयुपाय १११ । प्रशरमतिप्रकरण २/२०७ । श्रमणसूत्र ५० । वृहद्कल्प १/८३१ । 'सव्वेसिं गंथाणं चागो णिखेक्खभावणापुव्वं । पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहंतस्स ।। ६० ।।' १६२ १६३ १६४ -नियमसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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