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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
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मूलाचार में अब्रह्मचर्य के दस कारणों का उल्लेख मिलता है : (१) विपुलाहार;
(२) शरीर श्रृंगार; (३) गंधमाल्यधारण;
(४) गाना-बजाना; (५) उच्च शय्या;
(६) स्त्री संसर्ग; (७) इन्द्रियों के विषयों का सेवन, (८) पूर्वरति स्मरण (E) काम-भोग की सामग्री का संग्रह; और (१०) स्त्री सेवा।
तत्त्वार्थसूत्र में इनमें से पांच का उल्लेख है।८५ श्रमण या श्रमणी को जहाँ अपने ब्रह्मचर्य के खण्डन की सम्भावना होती है, उन स्थानों का उसे परित्याग कर देना चाहिए।६ श्रमण-श्रमणी को ब्रह्मचर्य व्रत अक्षुण्य रखने के लिए आचारांगसूत्र में कठोरतम नियमों एवं मर्यादाओं का निर्देश किया गया और पांच भावनाएँ भी कही गई हैं। इस प्रकार इस ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन करनेवाला (समत्वयोगी) संसार के सभी दुःखों से छुटकारा पाकर वीतराग अवस्था को प्राप्त कर लेता है।
अपरिग्रह महाव्रत
श्रमण का पांचवा महाव्रत अपरिग्रह है। उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि धन, धान्य, दास वर्ग आदि जितने भी जड़ एवं चैतन्य द्रव्य हैं, उन सबका कृत-कारित-अनुमोदित तथा मन, वचन और काया से त्याग करना अपरिग्रह महाव्रत है।८ वस्तुतः अपरिग्रह महाव्रत निर्ममत्व एवं समत्व भाव की साधना है। अपरिग्रह को समझने से पहले परिग्रह को समझना अत्यन्त आवश्यक है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है 'मूर्छा परिग्रहः' अर्थात्
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मूलाचार १०/१०५-०६ । तत्त्वार्थसूत्र ७/७ । 'दुज्जय कामभोगे य, निच्चसो परिवज्जए । संकाट्ठाणाणि सव्वाणि, वज्जेज्जा पणिहाणंव ।। १४ ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन १६ । आचारांगसूत्र २/१५/१७६ । (क) 'धणधनपेसवग्गेसु, परिग्गहविवज्जणं ।
सव्वारम्भपरिच्चाओ, निम्ममत्तंसुदुक्करं ।। ३० ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन १६ 1 (ख) दशवैकालिकससूत्र ४/५ । (ग) षड्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन ५७ ।
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