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________________ १०६ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना वासना उद्दीप्त होकर पीड़ित करती है। अतः ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए गरिष्ठ भोजन का त्याग आवश्यक है।७६ ८. अतिमात्राहार - ब्रह्मचारी साधक को अतिमात्रा में आहार नहीं करना चाहिए। मर्यादा से अधिक आहार करने पर इन्द्रियाँ अनियन्त्रित हो जाती हैं और प्रायः साधक रोगग्रस्त हो जाते हैं। ब्रह्मचारी को अल्प एवं परिमित मात्रा में आहार करना चाहिए। ६. विभूषावर्जन - ब्रह्मचारी साधु को स्नानादि के द्वारा शरीर की शोभा बढ़ाने के लिए सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रयोग सर्वथा वर्जनीय है। १०. ब्रह्मचारी साधक को पांचों इन्द्रियों सम्बन्धी भोगोपभोग का त्याग करना चाहिए।" इसी प्रकार समत्वयोगी साधक को समभावपूर्वक इस महाव्रत का पालन करना चाहिए। शुभचन्द्राचार्य ने भी दस प्रकार के मैथुन को ब्रह्मचारी के लिए त्यागने योग्य बताया है।८२ यह मैथन कछ काल पर्यन्त तक तो सुखदायक लगता है। लेकिन यह कैसा सुखदायक है? किंपाक फल (इन्द्रयाण का फल) देखने, सूंघने और खाने में स्वादिष्ट एवं मीठा लगता है; किन्तु हलाहल विष का काम करता है। वैसा ही यह है।८३ १७६ १८० १८१ १६२ 'रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसादित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवंति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ।। १० ।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ३२ । 'निग्गन्थो धिइमन्तो, निग्गन्थीवि न करेज्ज छहिं चेव । ठाणेहिं उ इमेहिं, अणइक्कमणाइ य से होई ।। ३४ ॥' -वही अध्ययन २६ । उत्तराध्ययनसूत्र २६/३४ ।। 'आयं शरीरसंस्कारो द्वितीयं वृष्यसेवनम् । तौर्यत्रिकं तृतीय स्यात्संसर्गस्तुर्यमिष्यते ।। ७ ।। योषिद्विषय संकल्पः पंचमं परिकीर्तितम् । तदंगवीक्षणं षष्ठं संस्कारः सप्तमंमतम् ।। ८ ।। पूर्वानुभोगसंभोगस्मरणं स्यात्तदष्टमम् । नवमं भाविनी चिन्ता दशमं वस्तिमोक्षणम् ।। ६ ।।' -ज्ञानार्णव सर्ग ११ 'किम्पाकफलसंभोगसत्रिभं तद्धि मैथुनम् । आपातमात्ररम्यं स्याद्विपाकेऽत्यन्तभीतिदम् ।। १० ।।' -वही । १५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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