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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
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३. निषिद्या - भिक्षु को स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं
बैठना चाहिए। शान्त्याचार्य ने उत्तराध्ययनसूत्र टीका में कहा है कि जिस स्थान पर कोई स्त्री बैठी हो, उस स्थान पर भिक्षु को उसके उठने के समय से लेकर एक मुहूर्त तक नहीं बैठना चाहिए।
आधुनिक काल में तो विज्ञान ने यहाँ तक सिद्ध कर दिया है कि एक व्यक्ति जिस स्थान पर बैठता है, उठने पर भी ४८ मिनट तक उसके परमाणु वहाँ पर बिखरे हुए रहते हैं। ४८ मिनट में उस स्थान से उस व्यक्ति का फोटो भी लिया जा सकता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि स्त्री या पुरुष जिस स्थान पर बैठे हों, उस स्थान पर ब्रह्मचारी साधक को नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि वहाँ बैठने पर उसमें वासना
जनित भावनाएँ उत्पन्न हो सकती हैं। ४. इन्द्रिय-भिक्षुक को स्त्री की ओर तथा साध्वी को पुरुष की
ओर रागदृष्टि से न देखना चाहिए। स्त्री के हाव-भाव रूप आदि के देखने से काम-वासना उत्पन्न होने की
सम्भावना रहती है इसलिए पांचों इन्द्रियों का संयम रखे। ५. कुट्यन्तर - ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु को स्त्रियों के विविध
प्रकार के शब्दों का श्रवण नहीं करना चाहिए। आस-पास में आते हुए स्त्रियों के कुंजन, गायन, हास्य, क्रन्दन, रूदन और विरह से उत्पन्न विलाप आदि के श्रवण से
काम विकार उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। ६. पूर्वावस्था - ब्रह्मचारी साधक को पूर्व में भोगे हुए काम
भोग का चिन्तन नहीं करना चाहिए। इससे वासना के
पुनः उद्दीप्त होने की सम्भावना रहती है। ७. प्रणीत - ब्रह्मचारी साधक को पुष्टिकारक (गरिष्ठ)
आहार का त्याग करना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में कहा गया है कि जिस प्रकार स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी पीड़ित करते हैं; उसी प्रकार घी, दूध आदि सरस द्रव्यों के सेवन से काम
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उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ४२४ ।
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