SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना १७४ बाह्य निमित्तों के प्रति विशेष सजग होना आवश्यक है; क्योंकि बाह्य निमित्तों को पाकर अन्तर में दबी वासना कब प्रकट हो जाए । उत्तराध्ययनसूत्र एवं ज्ञानार्णव में ब्रह्मचर्य महाव्रत की विस्तृत चर्चा की गई है। इस महाव्रत का पालन करने वाला साधक सदैव समत्व में स्थिर रहता है। उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मचर्य के अट्ठारह भेदों का भी उल्लेख मिलता है। इसकी टीका में इसी के आधार पर इसके निम्न भेद भी उपलब्ध होते हैं । औदारिक शरीर ( मनुष्य एवं तिर्यंच) तथा वैक्रिय शरीर (देवता) इन दोनों प्रकार के शरीरों से मन, वचन और काया तथा कृत-कारित एवं अनुमोदित रूप मैथुन सेवन के त्याग रूप ब्रह्मचर्य के अट्ठारह भेद ( २ x ३ x३ १८) होते हैं । १७६ १७५ १०४ उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मचर्य की रक्षा एवं बाह्य निमित्त से बचने के लिए निम्न बातों का संकेत मिलता है : १७४ १७६ १७७ १. वसति स्त्री, पशु एवं नपुसंक जिस स्थान पर रहते हों, वहाँ श्रमण का ठहरना उचित नहीं । उत्तराध्ययन सूत्र के ३२वें अध्ययन में कहा गया है कि जैसे बिल्लियों के पास चूहों का रहना उचित नहीं है, उसी प्रकार ब्रह्मचारी पुरुष का स्त्री के निकट या स्त्री का पुरुष के निकट रहना अनुचित है।७ २. कथा भिक्षु श्रृंगार - रसोत्पादक कथा भी न कहे । संथवो चेव नारीणं, तासिं इन्दियदरिसणं ।। ११ ।। कुइयं रूइयं गीयं, हासियं भुत्ता सियाणि य । पणीयं भत्तपाणं च अइमायं पाणभोयणं ।। १२ ।। गत्तभूसणमिट्ठ च, कामभोगा य दुज्जया । ।। ' नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा || १३ (ख) 'सप्रपंच प्रवक्ष्यामि ज्ञात्वेदं गहनं व्रतम् । स्वल्पोऽपि न सतां क्लेशः कार्यो ऽस्यालोक्य विस्तरम् ।। २ ।। १७५ 'बंभम्मि नायज्झयणेसु, ठाणेसु यडसमाहिए । --- (क) 'आलओ थीजणाइण्णो, थीकहा य मणोरमा । जें भिक्खू जयई निच्च, से न अच्छई मंडले ।। १४ ।। ' उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ४२१ । Jain Education International = - For Private & Personal Use Only उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन वही । - १६। - ज्ञानार्णव सर्ग ११ । - उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ३१ । 'जहा बिरालावसहस्समूले, न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बंभयारिस्स खमो निवासो ।। १३ ।। ' - वही अध्ययन ३२ । www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy