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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग ब्रह्मचर्य महाव्रत . १६६ १७० १७१ श्रमण का चतुर्थ महाव्रत ब्रह्मचर्य महाव्रत है । जैन आगमों में अहिंसा के बाद ब्रह्मचर्य का ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। उत्तराध्ययनसूत्र एवं ज्ञानार्णव में कहा गया है कि जो दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है, उसे देव, दानव और यक्ष आदि सभी नमस्कार करते हैं ।" ज्ञानार्णव में बताया गया है कि यह व्रत सामान्य मनुष्य धारण नहीं कर सकते । मन, वचन और काया तथा कृ त-कारित और अनुमोदित रूप से नव कोटि सहित मनुष्य, तिर्यंच और देव शरीर सम्बन्धी सभी प्रकार के मैथुन सेवन का त्याग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत है । प्रश्नव्याकरणसूत्र में यह उल्लेख मिलता है कि ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल है यम-नियमरूप प्रधान गुणों से युक्त है । ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले मनुष्य का जीवन बाह्य एवं अन्तःकरण प्रशस्त, निर्मम, निश्चल, गम्भीर और स्थिर हो जाता है । ब्रह्मचर्य साधुजनों के द्वारा आचरित मोक्ष का मार्ग है । इस महाव्रत का भंग होने से अन्य महाव्रतों का तत्काल ही भंग हो जाता है अर्थात् सभी व्रत, नियम, शील, तप, गुण आदि का क्षण में विनाश हो जाता है पतन हो जाता है नियमसार के अनुसार स्त्रियों का रूप देखकर उनके प्रति आकृष्ट नहीं होना ही ब्रह्मचर्य व्रत है ।७३ ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए आन्तरिक सावधानी के साथ-साथ बाह्य संयोग एवं बाह्य वातावरण के प्रति पूर्ण सावधानी आवश्यक होती है । वस्तुतः आन्तरिक सजगता के साथ .१७२ १६६ 'हास किड्ड रई दप्पं, सहसावत्तासियाणि य । १७० १७१ १७२ १७३ बम्भचेररओ थीणं, नाणुचिंते कयाइ वि ।। ६ ।।' (क) 'विदन्ति परमं ब्रह्म यत्समालम्ब्य योगिनः । तदव्रतं ब्रह्मचर्यं स्याद्धिरधोरेय गोचरम् ।। १ ।।' (ख) 'एकमेव व्रतं श्लाघ्यं ब्रह्मचर्यं जगत्त्रये । यद्विशुद्धिं समापन्नाः पूज्यन्ते पूजितैरपि ।। ३ ।। ' 'दिवमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं । मणसा कायक्केणं, तं वयं बूम माहणं ।। २५ ।।' प्रश्नव्याकरणसूत्र ६ । 'दट्ठूण इत्यिरूवं वांछाभावं णियत्तदे तासु । मेहुणसण्णविवज्जिय परिणामो अहव तुरीयवदं ।। ५६ ।।' Jain Education International For Private & Personal Use Only १०३ - उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन १६ । - ज्ञानार्णव सर्ग ११ । -वही । -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २५ । - नियमसार पृ. ११३ | www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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