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________________ १०० जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना प्रशंसा और दूसरों की निन्दा को भी त्याज्य बताया है।५४ आचारांगसूत्र में सत्य को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उसमें अधिष्ठित होनेवाला साधक समस्त पापकर्मों का क्षय करके इस संसार से पार हो जाता है।४५ प्रश्नव्याकरणसूत्र में यहाँ तक कहा गया है कि सत्य भगवान है (तं खु सच्चं भगवं)। सत्य ही समग्र लोक में सारभूत तत्त्व है।५६ ।। __ सत्य के पालन के लिए आचारांगसूत्र एवं उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में पांच भावनाओं का भी उल्लेख निम्न प्रकार से उपलब्ध होता है - अनुविचिन्तिय भाषण (वाणी विवेक), क्रोध विवेक, लोभ विवेक, भय विवेक, और हास्य विवेक।५७ अस्तेय महाव्रत श्रमण का तीसरा महाव्रत 'अस्तेय' है। इसका शास्त्रीय नाम 'सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं' अर्थात् सर्वथा रूप से अदत्तादान का त्याग है। श्रमण बिना स्वामी की आज्ञा या स्वीकृति के कोई वस्तु ग्रहण करता है, तो वह अदत्तादान है। स्वामी की बिना अनुमति के एक तिनका भी श्रमण को ग्रहण नहीं करना चाहिए।" श्रमण जंगल में या किसी भी परिस्थिति में बिना स्वामी से पूछे भोजन, जल, वस्त्र, शय्या एवं औषध आदि कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं करता। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति भिक्षा के द्वारा ही करता है।५६ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि मुनि अदत्त वस्तु का ग्रहण न करके निर्दोष वस्तु को ग्रहण करता है।६० अस्तेय महाव्रत १५४ प्रश्नव्याकरणसूत्र २/२/१२०-२६ । आचारांगसूत्र १/३/२/४०-४१, १/३/२, १/३/३ । प्रश्नव्याकरणसूत्र २/२, ७/२/१० । आचारांगससूत्र २/१५/५१-५६ । 'चितमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं। दंतसोहणमेतं पि, ओग्गहंसि अजाइया ।। १४ ।।' मूतावार ५/२६० । 'चित्तमन्तमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं। न गेण्हइ अदत्तं जो, तं वयं बूम माहणं ॥ २५ ।।' -दशवैकालिकसूत्र ६ । -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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