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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग ६६ वचन नहीं बोलना चाहिए। साधु को असावद्य एवं निश्चयकारी शब्दों को भी नहीं बोलना चाहिए। जिससे कई अनर्थ होने की सम्भावना हो, हिंसा के अनुमोदन में सहायक हो, ऐसे शब्द को बोलना उचित नहीं है।५० निश्चयात्मक भाषा भी साधु को नहीं बोलनी चाहिए। यदि सत्य और अहिंसा दोनों का पूर्णतः पालन सम्भव नहीं हो सके, तो वह मौन रखकर उसका पालन कर सकता है। यद्यपि उसके लिए अपवाद मार्ग का उल्लेख आगमों में है। दशवैकालिकसूत्र में यहाँ तक कहा गया है कि सत्य होने पर भी काने को काना, बधिर को बधिर, लूले को लूला, रोगी को रोगी, नपुसंक को नपुसंक, चोर को चोर आदि कहना साधु के लिए उचित नहीं है। इस प्रकार 'रे', 'तू' आदि अनादर सूचक शब्दों का बोलना भी उचित नहीं है।५२ तीर्थंकर एवं आचार्य आदि भी सामान्यजन के लिए देवानुप्रिय, आयुष्यमान, महानुभाव, सौम्य आदि सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग करते थे। इनका प्रमाण आगम ग्रन्थों में विस्तृत रूप में मिलता है।५३ प्रश्नव्याकरणसूत्र में उल्लेख है कि यदि श्रमण संयम जीवन में असत्य बोलता है, तो संयम का घात होता है। इसीलिए उसे मौन रहना ही उचित माना गया है। इस तरह वैमनस्य और विवाद उत्पन्न हो, ऐसे क्लेशमय वचन और अविवेक, · अन्याय, कलहकारक, अहंकार और धृष्टतापूर्ण वचन सत्य होने पर भी श्रमण के लिए वर्जित हैं। श्रमण को हित, मित और प्रिय वचन बोलना चाहिए। सुविचार, विरोध रहित और निरवध वचन बोलने से श्रमण का सत्य महाव्रत अखण्ड रहता है। इस व्रत में अपनी १५० -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन १ । 'मुसं परिहरे भिक्खू, न य यं ओहारिणिं वए । भासादोसं परिहरे, मायं च वज्जए सया ।। २४ ।।' उत्तराध्ययनसूत्र १/३६; २४/२० । दशवैकालिकसूत्र १/१४-२२ । (क) आचारांगससूत्र १/१/१/१; (ख) उत्तराध्ययनससूत्र २/%; १६/१; और (ग) ज्ञाताधर्मकथासूत्र १/१/१११ ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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