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________________ ६८ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना भी असत्य वचन नहीं बोलना सत्य महाव्रत है।४५ सत्य महाव्रत के सन्दर्भ में वचन की सत्यता पर अधिक बल दिया गया है। जैनागमों में असत्य के चार प्रकार बताये हैं : १. होते हुए नहीं कहना; २. नहीं होते हुए उसका अस्तित्व बताना; ३. वस्तु कुछ है और उसे कुछ और बताना; और, ४. हिंसाकारी पापकारी और अप्रिय वचन बोलना। इन चारों प्रकार के असत्य भाषण श्रमण या समत्वयोगी के लिए वर्जित हैं। श्रमण या समत्वयोगी को शुद्ध वचन का उपयोग करना चाहिए। इसका विस्तृत विवेचन दशवैकालिकसूत्र के वाक्यशुद्धि नामक अध्ययन में मिलता है। जैन आगमों के अनुसार भाषा चार प्रकार की होती है - सत्य, असत्य, मिश्र और व्यावहारिक।४६ श्रमण स्वार्थ अथवा परार्थवश या क्रोध अथवा भय के कारण न तो असत्य भाषण करे और न ही असत्य बोलने के लिए किसी को प्रेरणा दे। साधक चाहे कितना भी तपस्वी हो, जटाधारी हो, मस्तक भी मुण्डा ले अथवा नग्न (दिगम्बर) हो जाये या वस्त्रधारी हो, लेकिन असत्य बोलता हो, तो वह अतिशय निन्दनीय है।४८ अहिंसा एवं सत्य परस्पर सापेक्ष या पूरक हैं। दूसरे शब्दों में सत्य का आधार अहिंसा है। किसी को अप्रिय बोलकर उसके हृदय को छेद दें, तो वह हिंसा ही है। नियमसार के अनुसार जो साधु राग-द्वेष अथवा मोह से होने वाले मृषाभाषा के परिणाम छोड़ता है वही सत्य महाव्रत का पालक है।४६ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि सत्यमहाव्रती को असभ्य १४५ १४६ उत्तराध्ययनसूत्र २५/२४ । पुरूषार्थ सिद्धयुपाय ६१ । दशवैकालिकसूत्र ६/१२-१३ । 'यस्तपस्वी जटी मुण्डी नग्नो वा चीवरावृतः । सोऽप्यसत्यं यदि ब्रूते निन्द्यः स्यादन्त्यजादपि ।। ३१ ।।' 'रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिमाणं । जो पजहदि साहु सया बिरियवदं होइ तस्सेव ।। ५७ ।।' -ज्ञानार्णव सर्ग ६। १४६ -नियमसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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