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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग ६१ रूप से समस्त पापकारी (हिंसक) प्रवृत्तियों से बचकर आन्तरिक राग-द्वेषात्मक वृत्तियों से ऊपर उठना होता है। प्राकृत भाषा में श्रमण के लिए 'समण' शब्द का प्रयोग होता है। 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं : १. श्रमण, २. समन; और ३. शमन। १. श्रमण - जो आत्मविकास के लिए परिश्रम (साधना) करता है, वह श्रमण है। यहाँ श्रमण शब्द को श्रम् धातु से निष्पन्न माना गया है। २. समन - यदि समन शब्द के मूल रूप में सम् धातु मानते हैं तो उसका अर्थ होगा समत्व भाव। जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में सम भाव रखता है, वह समन कहलाता ३. शमन - शमन शब्द का अर्थ है, अपने मन और इन्द्रियों की वृत्तियों को संयमित रखना। जो इन्हें संयमित करता है; वह शमन है। वस्तुतः जैन परम्परा में श्रमण शब्द का मूल तात्पर्य समत्व भाव की साधना ही है। भगवान महावीर ने कहा है कि केवल मुण्डन करने से कोई श्रमण नहीं कहलाता। श्रमण वही कहलाता है, जो समत्व की साधना करता है। अनुयोगद्वार में बताया गया है कि समत्व बुद्धि रखने वाला श्रमण है। सूत्रकृतांगसूत्र में भी श्रमण जीवन की व्याख्या उपलब्ध है। जो साधक शरीर आदि में आसक्ति नहीं रखता; सांसारिक कामनाओं से विमुक्त रहता है, प्राणीमात्र की हिंसा नहीं करता, झूठ नहीं बोलता, मैथुन व परिग्रह के विकार से रहित होता है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि जितने भी कर्माश्रव और आत्मा के पतन के हेतु हैं, उन सब से निवृत्त रहता है; अपनी इन्द्रियों को अंकुश में रखता और शरीर के प्रति मोह-ममत्व से रहित होता है, वह श्रमण कहलाता है।१२६ १२७ 'समयाए समणो होइ, बम्भचेरेण बम्भणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ।। ३१ ।। अनुयोगद्वार उपक्रमाधिकार १-३ । सूत्रकृतांगसूत्र १/१६/२ । -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २५ । १२८ अनुयाय १२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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