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________________ ६० जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना होने की प्रक्रियाएँ हैं। आध्यात्मिक विकास की ये सीढ़ियाँ हैं; जिन्हें क्रमशः यथाशक्ति ग्रहण करता हुआ श्रावक साधु के समीप पहुँच जाता है। जो इस समत्व की साधना के लिए प्राणपन से उपस्थित हैं, वे ही साधना के क्षेत्र में गुरूपद के अधिकारी हैं। क्योंकि समत्वयोग की साधना में मार्गदर्शक का स्थान वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जो स्वयं उस साधना को करता है। निर्ग्रन्थ मुनि को गुरूपद का अधिकारी इसलिए माना गया है कि वे स्वयं समत्वयोग की साधना में निरत रहते हैं। निर्ग्रन्थ शब्द का अर्थ यह है कि जिसकी चेतना में कोई ग्रन्थी न हो। समत्वयोगी वही हो सकता है जिसने ग्रन्थियों का विमोचन कर दिया है। राग-द्वेष की ग्रन्थियों का विमोचन करनेवाला तथा इच्छा व आकांक्षाओं से ऊपर उठे हुए अपरिग्रही मुनि ही समत्वयोग की साधना में मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार किये जाते हैं। अन्त में वीतराग प्रणीत मार्ग को ही धर्म के रूप में स्वीकार किया गया है; क्योंकि वीतराग परमात्मा ही उस मार्ग को बताने में समर्थ होते हैं, जिसके द्वारा व्यक्ति तनावों और विक्षोभों से ऊपर उठकर समत्व को प्राप्त कर सकता है। जो साधक वीतराग परमात्मा को अपना आदर्श, निर्ग्रन्थ मुनि को अपना गुरू और वीतराग प्रणीत धर्म को अपना धर्म मानता है, वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। जो श्रावक बारह व्रतों व ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हैं, वे नैष्ठिक श्रावक कहे जाते हैं। किन्तु जो गृहस्थ उपासक अपनी जीवन की संध्या में पूर्णतः निवृत्त होकर समाधि-मरण को स्वीकार करता है और आत्मभाव में रमण करता है, वह साधक श्रावक कहा जाता है। इस प्रकार गृहस्थ उपासकों में भी अपनी साधना की विशिष्टता के आधार पर विभिन्न भेद स्वीकार किये गये हैं। वस्तुतः जैनदर्शन में श्रावक जीवन की साधना का जो स्वरूप वर्णित है, वह भी समत्वयोग की साधना के हेतु ही है। उसे हमें समत्वयोग की साधना का प्रथम व व्यवहारिक रूप कह सकते हैं। श्रमण धर्म जैन परम्परा में श्रमण जीवन का तात्पर्य विरति है। इसमें बाह्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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