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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
निश्चित करना; ६. शयन - पलंग, खाट, गद्दी, चटाई आदि बिछाने की
संख्या निश्चित करना; १०. विलेपन - केशर, चन्दन, तेल आदि लेप किये जाने वाले
पदार्थों की संख्या मर्यादित करना; ११. ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य की मर्यादा का निर्धारण करना; १२. दिशा - दिशाओं में गमनागमन की प्रवृत्तियों का परिमाण
निश्चित करना; १३. स्नान - स्नान तथा वस्त्र प्रक्षालन की मर्यादा रखना;
और १४. भक्त - अशन, पान, खादिम, स्वादिम - इन चारों प्रकार
के आहार की सीमा निश्चित करना।" इस प्रकार इन चौदह वस्तुओं की मर्यादा का नियम लेकर श्रावक प्रतिदिन देशावकाशिक व्रत का पालन कर सकता है।
११. पौषधोपवास : पौषध + उपवास अर्थात् पर्वकाल में (अष्टमी, चतुर्दशी आदि) चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है, वह पौषधोपवास है। विभाव से अलग हटकर स्व-स्वरूप में अवस्थित रहना पौषध है। इस व्रत को ग्रहण करने से गृहस्थ साधक साधु के समान बन जाता है।
१२. अतिथि संविभाग : जिसके आगमन की तिथि (समय) निश्चित न हो उसे अतिथि कहा जाता है। सामान्यतः अतिथि शब्द का अर्थ श्रमण और श्रमणी किया जाता है। किन्तु श्रावक प्रज्ञप्ति में श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका - इन चारों को अतिथि कहा गया है।१३
'सचित्त-दव्व-विगइ-वाणह-तम्बोल-वत्थ-कुसुमेसु ।। वाहण-सयण-विलेवण-बंभ-दिसि-न्हाण-भत्तेषु ॥' -प्रतिक्रमणसूत्र में अतिचार से। 'जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' । खण्ड २ पृ. २६७ ।
-डॉ. सागरमल जैन । अभिधानराजेन्दकोश भाग ७ पृ. ८१२ ।
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