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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग देशावकाशिकव्रत कहलाता है। उपाशकदशांगसूत्र में इस व्रत के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि निश्चित समय के लिए क्षेत्र की मर्यादा रखकर उससे बाहर किसी प्रकार की सांसारिक प्रवृत्ति नहीं करना देशावकाशिक व्रत है।०६ परिग्रह-परिमाण-व्रत में परिग्रह की मर्यादा, दिशा-परिमाण-व्रत में व्यवसाय के कार्यक्षेत्र का सीमांकन और उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत में उपभोग-परिभोग की वस्तुओं की मात्रा की सीमा यावज्जीवन के लिए मर्यादित की जाती है।" वर्तमान में व्रतधारी श्रावक इस व्रत का नियमित पालन कर सकता है। वे चौदह नियम इस प्रकार है : १. सचित्त - सचित्त वस्तु फल, शाक-सब्जी आदि सभी त्याज्य हैं; किन्तु सम्पूर्ण त्याग न कर सके, तो परिमाण निश्चित करना; २. द्रव्य - खाने-पीने के द्रव्यों की संख्या निर्धारित करके संकल्प करना कि आज मैं इतने ही द्रव्य उपयोग करूंगा; विगई - मधु, माँस, शहद और मक्खन त्यागने योग्य हैं। घी, तेल, दूध, दही, गुड़ (शक्कर) एवं तली हुई वस्तु - इन छः विगयों में से किसी एक, दो या अधिक का त्याग करना; उपानह - जूते, चप्पल, मोजे आदि की संख्या मर्यादित करना; तम्बोल - पान, सुपारी, इलायची आदि की संख्या का प्रमाण करना; वस्त्र - वस्त्र एवं आभूषणों की संख्या मर्यादित करना; ७. कुसुम - फूल, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थों की सीमा का नियम करना; ८. वाहन - स्कूटर, कार, बस, ट्रेन आदि की संख्या ॐ ४9 १०६ ११० उपासकदशांगसूत्र १/४६ । ° 'जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' खण्द २ पृ.२६६ । ___-डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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