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________________ ८४ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बताया गया है कि निष्प्रयोजन पाप लगाना अनर्थ दण्ड है। वे पांच प्रकार के कहे गए हैं : १. अपध्यान; २. पापोपदेश; ३. प्रमादचर्या; ४. हिंसाप्रदान; और ५. दुःश्रुतश्रवणादि।०७ १०७ चार शिक्षाव्रत ६. सामायिकव्रत : सामायिक जैन साधना का प्रथम केन्द्र बिन्दु है - सामायिक अर्थात् समत्व का अभ्यास। श्रमण इसकी साधना जीवन पर्यन्त करता है और श्रावक नियत समय तक करता है। यह श्रावक का प्रथम शिक्षाव्रत है। सामायिक की साधना एक ओर आत्मजागृति है और दूसरी ओर समत्व का दर्शन है। समत्व की साधना अप्रमत्त चेतना में ही सम्भव है। सतत अभ्यास से ही श्रावक समत्व की साधना कर सकता है। हमारे शोध प्रबन्ध में समत्व, सामायिक या समभाव की ही प्रमुखता रही है। हमने सामायिक या समत्व का विवेचन पूर्व में भी किया है और आगे भी करेंगे। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। सामायिक साधना के लिए चार विशुद्धियाँ निर्धारित की गई हैं : १. कालविशुद्धि; २. क्षेत्रविशुद्धि; ३. द्रव्यविशुद्धि; और ४. भावविशुद्धि । इन विशुद्धियों का हमने तीसरे अध्याय में विस्तृत विवेचन किया है। १०. देशावकाशिकव्रत : अणुव्रतों और गुणव्रतों की प्रतिज्ञा समग्र जीवन के लिए है। जबकि शिक्षाव्रतों की साधना में गृहीत परिमाण को किसी विशेष समय के लिए पुनः मर्यादित करना १०७ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा । १०८ 'कज्ज किंपि ण साहदि, णिच्चं पावं करेदि जो अत्थो । सो खलु हवे अणत्यो पंचपयारो वि सो विविहो ।।३४३।।' 'जो कुणदि काउसग्गं, वारसआवत्तसंजदो धीरो । णमणदुर्ग पि कुणतो चदुप्पणामो पसण्णप्पा ।। ३७१ ।। चिंतंतो ससरूवं, जिणबिम्ब अहव अक्खरं परमं । ज्झायदि कम्मविवायं, तस्स वयं होदि सामइयं ।। ३७२ ।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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