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________________ जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग ८७ श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप और समत्व की साधना जैन परम्परा में गृहस्थ साधक अपने आध्यात्मिक विकास के लिए सर्व प्रथम मार्गानुसारी गुणों को धारणकर तत्पश्चात् बारह व्रतों को ग्रहण करता है। इसके पश्चात् क्रमशः वह ग्यारह प्रतिमाओं को धारण करता हुआ समत्व की साधना की ओर अग्रसर होता है। उत्तराध्ययनसूत्र के इकतीसवें अध्ययन में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख उपलब्ध होता है। इसके टीकाकार गणिवर भावविजयजी ने भी इनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार से किया १. दर्शन प्रतिमा : साधक को अध्यात्ममार्ग या समत्व की यथार्थता का बोध होना और उस सम्बन्ध में दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा होना ही दर्शन प्रतिमा है। प्रशमादि गुणों को धारण कर दुराग्रहों का सर्वथा त्याग कर निर्दोष सम्यक्त्व को स्वीकारना दर्शन प्रतिमा है।६ संसार, शरीर और भोगों से विरक्त सम्यग्दृष्टि दर्शन प्रतिमाधारी कहलाता है।१७ २. व्रत प्रतिमा : पांच अणुव्रतों का निरतिचार पालन करना व्रत प्रतिमा है।” ३. सामायिक प्रतिमा : समत्व की साधना हेतु किये जाना ११४ ११६ 'उवासगाणं पडिमासु, भिक्खुणं पडिमासु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ।। ११ ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ३१ । वही ३०/१६ - देखें टीका भावविजयगणि । उत्तराध्ययनसूत्र ३०/१७ - देखें 'उत्तराध्ययनसूत्र : एक दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिपेक्ष्य में उसका महत्व' - डॉ. विनीतप्रज्ञाश्रीजी । (क) 'पंचुम्बर सहियाइं सत्त वि विसणाइं जो विवेज्जेइ । सम्मतं-विसुद्ध-मइ सो दंसण सावओ भणिओ ।।५७ ।।' -वसुनन्दिश्रावकाचार । (ख) कार्तिकेयानुप्रक्षा ३२६ । 'पंचाणुब्बयधारी गुणवयसिक्खावएहिं संजुत्तो।। दिढिचितो समजुत्तो, णाणी वय सावओ होदि ।। ३३० ।।' -कार्तिकेयानुप्रेक्षा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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