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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
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करता हूँ और सभी पापमय प्रवृत्तियों (सावद्य योग) का त्याग करता हूँ" -(सामायिक सूत्र)।
मुनि यथार्थ वस्तु स्वरूप की ही श्रद्धा करता है। मुनि जीवन, श्रद्धा और आस्था अर्थात सम्यक्त्व का सहभावित्व बताते हुए पुनः आगे कहा गया है कि जो साधक कर्मों से रहित होकर सब जानता है, देखता है - किसी प्रकार की आसक्ति, इच्छा या परमार्थ का भी जो विचार नहीं करता और संसार की गति-अगति को जान कर जन्म मरण को समाप्त कर लेता है; वही मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है।२३ मुनि जीवन सम्यक्त्व से अभिन्न है। सम्यक्त्व का स्थान प्रथम है। इसके अभाव में ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के बिना चारित्र भी सम्यक नहीं हो सकता। देव, गुरू और धर्म या जिनवाणी में पूर्ण श्रद्धा रखकर उसकी ओर अभिमुख हो जाना ही सम्यक्त्व या समत्व है। इस प्रकार आचारांगसूत्र में सम्यक्त्व के लिए 'सम्मत्तं, सम्म, समियदंसण' तथा सम्यग्दृष्टि के लिए 'सम्मत्तदंसी, सम्मत्तदंसिण' शब्द का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार दृढ़ श्रद्धान और समभाव सम्यक्त्व की नींव है। इनके अभाव में मुनि जीवन भी सम्भव नहीं है। - आचारांगसूत्र में प्रस्तुत इस ‘सम्मं' शब्द का अर्थ टीकाकारों ने सम्यक्त्व या सम्यग्दृष्टि ही किया है। जिनदासगणिमहत्तर ने आचारांगचूर्णि तथा शीलांकाचार्य ने आचारांगवृत्ति में 'सम्म' शब्द का अर्थ सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व ही किया है। आचारांगसूत्र में एक स्थान पर यह कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि कोई पाप नहीं करता है। यही विवेचन प्रकारान्तर से दशवैकालिकसूत्र में भी मिलता है।३६ यहाँ सम्यग्दृष्टि का अर्थ आत्मदृष्टा या समत्वयोगी ही है। सम्यग्दृष्टि ज्ञाता दृष्टाभाव की अवस्था ही है। इस प्रकार
'एस महं अकम्मा जाणइ पासइ पडिलेहाए नावकंखइ इह । ___आगई गईं परित्राय अच्चेइ जाइ मरणस्स वट्टमग्गं विक्खाइए।।' -वही ५/६ । ३४ 'जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया।'
-वही ६/३। 'तम्हातिविज्जे परमं ति णच्चा सम्मत्तदंसी ण करई पावं ।' -आचारांगसूत्र ३/२ । 'सम्मद्दिट्ठि सया अमूढे, अस्थि हु नाणे तव संजमें अ। तवसा घुणई पुराण-पावगं मण-वय-काय सुसवूडे जे स भिक्खू ।।' -दशवैकालिकसूत्र १०/७ ।
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