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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
आत्मसिद्धि में श्रीमद् रायचन्द्र ने निम्न छः बातों पर अनन्य निष्ठा को ही सम्यग्दर्शन कहा है। यह छ: बातें निम्न हैं - आत्मा है; आत्मा नित्य है; आत्मा कर्ता है; आत्मा भोक्ता है; आत्मा की मुक्ति सम्भव है और मुक्ति का मार्ग है। इन छ: बातों पर अनन्य निष्ठा रखने को सम्यग्दर्शन कहा गया है। किन्तु ये सभी व्यवहार सम्यग्दर्शन के लक्षण हैं। निश्चय में तो सम्यग्दर्शन आत्मा के शुद्ध स्वरूप में अनन्य आस्था है। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि मेरा शुद्ध स्वरूप अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्त आनन्दमय है। पर-भाव या आसक्ति ही बन्धन का कारण है और स्व-स्वभाव में रमण करना मोक्ष का हेतु है। मैं स्वयं ही (अपने शुद्ध स्वरूप में) अपना आदर्श हूँ। देव, गुरू और धर्म मेरी आत्मा ही है; ऐसी दृढ़ श्रद्धा का होना ही निश्चय सम्यक्त्व है। दूसरे शब्दों में आत्म-केन्द्रित होना ही निश्चय सम्यक्त्व है। इसका तात्पर्य यह है कि जैनदर्शन में श्रद्धा या आस्था का अनन्य केन्द्र आत्मा का शुद्ध स्वभाव या वीतरागदशा ही माना गया है। यही वीतरागदशा समत्व की अवस्था है और इस प्रकार समत्व के प्रति अनन्य निष्ठा सम्यग्दर्शन है।
जैनदर्शन में मुनित्व का आधार समत्व माना गया है। समत्व की साधना ही मुनित्व की साधना है। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पंचम अध्ययन के तृतीय उद्देशक में स्पष्ट रूप से कहा गया हैं कि जो समत्व का द्रष्टा है, वही मुनित्व का द्रष्टा है और जो मुनित्व का द्रष्टा है, वही समत्व का द्रष्टा है।३२ वस्तुतः समत्व की साधना ही मुनि जीवन की साधना है। दोनों में तादात्म्य है। जहाँ समत्व है, वहीं मुनित्व है और जहाँ मुनित्व है, वहीं समत्व है। मुनि अपनी साधना के प्रथम चरण में यही प्रतिज्ञा लेता है कि "हे पूज्य! मैं समत्व की साधनारूप सामायिक को स्वीकार
३० आत्मा छे, ते नित्य छे, छे कर्ता निजकर्म ।
छे भोक्ता वली मोक्ष छे, मोक्ष उपाय सुधर्म ।।४।।' -आत्मसिद्धि (षट्पद नाम कथन) । ३१
'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ५६ ।
-डॉ. सागरमल जैन । २२ 'जं सम्मं ति पासहा तं मोणं ति पासहा । जं मोणं ति पासहा तं सम्मं ति पासहा ।।३८६।।'
-आचारांगसूत्र १/५/३ ।
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